Thursday, July 30, 2009

जाल


वय का बदलाव

है , या

मानसिक विकृति ,

हर रोज ,

तीक्ष्ण दृष्टि से

देख लेता है ।

हौले से

अपशब्दों को

दोहरा लेता है

फ़िर ,

दिनचर्या में मगन भी

उसकी

छटपटाहट ,

यहाँ -वहां

दीख पड़ती है ,

कभी ,

नयन कोर

लाल होते हैं ,

कभी ,

मुठ्ठियाँ भिंच

जाती हैं ,

कभी ,

कागज पर कलम को

पटक देता है ।

निकल जाता है

अनमनी सी

मंजिल की ओर ,

जहाँ जाने से

उसके कदम

सालों पहले

रुक चुके हैं ।

कोई विकल्प नही

कोई रास्ता नही ।

शाम होते ही

घर लौट पड़ता है ।

वक्त के अटके

रहने का भ्रम

उसे ,

उकसाता है ।

कभी ,

बडबडाता है ,

कभी ,

खीन्जता है ,

कभी ,

रीतता है ,

कभी ,

भरता है ,

शाम सरकते ही

गटकने लगता है ,

मद को पानी के साथ

या ,

भ्रम को सच के साथ ।

फ़िर ,

घुर्राता है , दहाड़ता है

दनदनाता है ,

चीखता -चिल्लाता है

अपनी विकृति को

रूप देता है ।

आकार गड़ता है ,

कल्पनाओं के ।

नारी के वजूद को

नकारता है ,

नर को नारायण

बनाने का प्रयास

करता है ,

प्रकृति की दुश्वारियों

से तृप्त ,

नारी पर ,

आक्षेप गड़ता है ,

सामाजिक दायरों से

मुक्ति चाहता है ।

भोग विलास की

उन्मुक्तता चाहता है

उसी , नारी से

जिसे ,

पलभर पहले ,

सींचा था

उलाहनों और धिक्कारों से

उसकी मौजूदगी चाहिए ,

अपने विकार के

वमन के लिए ,

हिंस्त्र भाव के

व्यवहार के लिए ।

जीवन की इस

अवस्था में ,

क्यों ?

इस तामसिक

वृत्ति का घेरा है ,

रोज -रोज

शमशान से

लौट कर भी ,

क्यों ?

समझ नही आता ,

अपना अस्तित्व ।

क्यों ?

हम , गिरफ्त में हैं ,

अपने ही जाल के ।

रेनू शर्मा ......