Tuesday, November 17, 2009

कल्पना करुँ कल्पना उस दिन की


करुँ कल्पना उस दिन की ,
जब नेता बन जाऊंगा काम करूँ नही दो कौडी का ,
अरबों नोट कमाऊंगा ।
नोट पड़े गिनती पर भारी ,
कहाँ तक गिने मशीन बेचारी
सिस्टम खोखा -पेटी का ,
तब लागू करवाऊंगा ।
जब नेता बन जाऊंगा .....
पहला जनता करे सबाल ,
कैसे हैं बिजली के हाल
जनता को ऐसे चकाराऊ ,
पनचक्की की तरह घुमाऊ ।
करुँ आंकडे बाजी ऐसे ,
बिजली का प्रोफेसर जैसे
किलोवाट और मेगावाट में,
फर्क उसे में समझाऊ ।
जब नेता बन जाऊंगा ....
दूजा मुद्दा मद्यनिषेध ,
ये मुद्दा नही अधिक विशेष
मद्य निषेध का प्रचार कराऊं,
नित्य शाम को बार में जाऊँ ।
जमकर पीउं डेढ़ बजे तक ,
दिन में सौऊँ धूप चढे तक
दो अक्टूबर सुबह छ : बजे ,
राजघाट पर जाऊंगा
आँख मूँद कर रघुपति राघव गाऊंगा।
जब नेता बन जाऊंगा .....
तीजा है कानून व्यवस्था ,
ढीली ढाली लचर अवस्था
हिन्दू ,मुस्लिम ,सिक्ख , इसाई ,
में इनका पेटेंट कसाई ।
विष घोलूँ अफवाह फैलाऊं ,
और दंगे करवाऊंगा
जब हालत बेकाबू हो जायें ,
तब करफू लगवाऊंगा
जिम्मेदारी डाल किसी पर ,
उसकी बलि चढाऊंगा ।
जब नेता बन जाऊंगा .....
चोथा है सामाजिक न्याय ,
सहना होगा अब अन्याय
पढ़े - लिखे और मध्यम शहरी ,
इस राज से उखड जायेंगे ,
चोर उचक्के , भू माफिया ,
तस्कर संरक्षण पाएंगे ।
पावडर पीने वाले मुजरिम ,
बिना जमानत छूट जायेंगे
महिलाओं की चेन लूट ,
आजाद घूमते मिल जायेंगे
भला आदमी जहाँ दिखा ,
मैं वहीं चालान बनाऊंगा ।
जब नेता बन जाऊंगा ......
पंचम मुद्दा है मंहगाई ,
कहते हैं दिल्ली से आई
चटनी रोटी मिल जायेगी ,
दुगना मूल्य चुकाना होगा
जिसने नाम लिया सब्जी का ,
उस पर तो जुरमाना होगा
घी सूंघना चाहोगे तो ,
पैन कार्ड दिखलाना होगा
खुली हवा और खिली धूप पर ,
भारी टैक्स लगवाऊंगा ।
जब नेता बन जाऊंगा .....
छटवां है स्वास्थ्य बीमारी ,
जिम्मेदारी नही हमारी
सर्दी और जुकाम का हौवा ,
दूर करेगा बस एक पौवा
गला यदि करना हो साफ़ ,
नित्यप्रति तुम लेना हाफ
कभी सताए यदि फुल टेंशन ,
फुल ही दूर करेगा टेंशन
कैंसर ,एड्स नही बीमारी ,
जिम्मेदारी नही सरकारी
इन्हें दवा की नही जरूरत ,
जान बचायेगी बस जानकारी
फर्जी बिल बैनर -पोस्टर पर ,
पूरा बजट लुटाऊंगा
जब नेता बन जाऊंगा ......

बंद


पुलिस सहायता चौबीस घंटे बंद ,
विदधुत मंडल घंटे बंद,

दोपहरबाद संधारण बंद ,
शाम को शमशानघाट बंद 

सन्डे सरकारी होली डे ,
सोमवार को नया बाजार ,

मंगलवार को भारत भवन ,
बुधवार को वन विहार ,

जुमेरात को आटा चक्की ,
मानव के सोलह श्रंगार, 

जुमा दोपहर अंचार -पंचर 
कारोवार बंद ,

जहाँ तहां स्कूटर लुडके,
बंद पड़ी कुछ मोटर कार ,

ढूढे से नही मिले कमानी ,
बंद कबाडी का बाजार ,

बाद जुमा फ़िर ,
टाटा चमका , बाटा उछाला ,

रुपयों का व्यापार हो गया ,
अरबों का कारोबार हो गया ,

शनिवार को बंद हुआ फ़िर ,
मुंबई का शेयर बाजार ,

१५ अगस्त २६ जनवरी 
प्रैस बंद अखबार बंद ,

२ अक्टूबर बूचड़ खाने ,
होली के दिन बीयरबार ,

चातुर्मास में शादी ब्याह ,
अधिकमास में मंगलचार ,

माघ पूष में बंद मावठा ,
जेठ मास में ठंडी बयार ,

आम आदमी जूझ रहा ,
सूखी रोटी पाने को ,

उससे रोटी वही छीन रहा,
जिसे वक्त नही खाने को ,

भूखे पेट मरा नही कोई ,
खाकर नोट जिया नही कोई ,

पड़े तेलगी मूर्छा में ,
हर्षद की हुईं सांसें बंद ,

गांजा ,सुलफा ,चिलम -धतूरा 
भंग , तम्बाकू पीता है ,

इतना भोला मत बन मानव ,
भोले से टक्कर लेता है ,

लट में बंद खोल दी गंगा 
मानव को नही आया रास ,

कूड़ा करकट , पन्नी कचरा 
नाली नाले , गटर डाल दिए ,

शिक्षा की वो गति बनाई,
व्यापार हो गई पढ़ाई ,

गुरुकुल सारे बंद हो गए ,
चक्रव्यूह में फंस गए छात्र ,

हे ईश्वर !! ऐसा वर दो ,
भारमुक्त हों बूढे कंधे ,

नौजवान को रोजगार दो ,
बंद को ऐसी परिभाषा दो 

लूटपाट हो जाए बंद ,
सबको अपना हक़ मिल जाए ,

सद कर्म करें , सद वचन कहें ,
वंदे हो , वतन की हो जय । 
कालीचरण ....

Monday, September 28, 2009

देवी पूजन

फूल वाली
फ्राक पहने ,
सुबह से
नहा -धोकर ,
बालों में
क्लिप लगाये ,
नंगे पैर ,
एक घर से
दूसरे घर ,
खींची जाती थी ,
राजो !! आजा ,
बुलाया जाता था ,
माथे पर लाल
टीका लगाये ,
पैरों पर महावर,
हाथ पर
एक टका रखकर
कन्या ,
पूज दी जाती थी ।
आँगन में
दरी बिछाकर ,
थाली में
पूडी , हलुआ
खीर , चना सब ,
देवी को
चढ़ता था ।
लंबा घूँघट डाले
चाची,
ढोक लगाती थी ,
बाहर
चबूतरे पर बैठा
काका ,
दूर से दौड़ता था ,
जय ,हो मैया की ,
आज ,
वही काका -काकी
गर्भ में ठहरी ,
नातिन को
मरवाना चाहते हैं ,
कैसी , देवी ?
कैसा पूजन था
अभी तक ?
रेनू ...

Wednesday, September 16, 2009

आखिरी शाम का दिया


यारों का संदेश

मोबाईल पर

चस्पा होता है ,

कभी ,

फोन घनघनाता है ,

कभी ,

एकांत में

मंत्रणा हो लेती है ,

रात की खुमारी

अभी , जाती भी नही

कि,

सुबह का निमंत्रण

बार -बार

मुंह में रस

घोलता है ,

कभी ,

कला कुत्ता ,

कभी,

लाल रात

कभी ,

जिन ,कभी ,

हस्ताक्षर

बिसलरी जल के साथ

विलीन होकर ,

निमिष भर में ,

हलक के पार

चली जाती है ,

कहकहे , मस्ती ,फब्तियां

दिल्लगी ,राजनीति और कभी

मदनीति ,

सबका कॉकटेल

परोसा जाता है ,

आजादी का नशा

भुला देता है

घर -परिवार -बच्चे ,

अब ,

किसे भाता है

मुसीबतों का स्मरण

मद ,चषक के

चषक पर चषक

जब ,

उदराग्रस्त होते हैं ,

तब ,

रजनोत्संग के लिए

लालायित ,

प्रकम्पित भंवरे सा

प्रेम का भरम जाल

फैलाता ,

भिनभिनाता है ,

कभी ,

आंखों को लाल

करता है ,

कभी ,

पंख फड फडाता है ,

कभी ,

कलिका की बेरुखी पर

विष वमन कर

वहीं का वहीं ,

ढेर हो जाता है ,

इस ...

अगन की तपन

जला रही है ,

अनेकों भावनाओं ,

विचारों और परिवारों को ,

चषक का कषाय पन

दिलों को ,

छील रहा है ,

किसी अपराधी की

देह सा , जो

निरपराध है ,

कब तक,

अदृश्य कर्म

दृश्य दंड से ,

प्रकट होते रहेंगे ?

जीवन की

धरोहर सा , वक्त

सिसकते कट गया ,

अब ,

आखिरी शाम को

स्नेह का दिया

जलाकर तो देखो !!!

एक ,

पतंगी आ ही मरेगी ।

रेनू ...

पार्क का जादू


पास के पार्क मैं

आती है ,

रोज

डबडबाती आंखों से

इधर -उधर

ढूंढती है

कुछ , डरी सहमी सी

झूले के पास जाकर

ख़ुद में ही सिमटकर

खड़ी हो जाती है ,

इन्तजार करती है

शायद ,

उसकी बारी आएगी

पर ,

लूट -झपट

यहाँ भी , जरी है

धीरे से ,

वो ,खिसकती है

फिसलपट्टी पर

ऊपर चढ़ कर भी

नीचे धकेली जाती है ,

रेत में धंसे

पैर देखकर

खुश होती है ,

उठाकर गेट तक

जाती है ,

कल फ़िर ,

आने के लिए ।

रेनू ...

खामोशी


खामोश हैं

साँसें ,

धड़कनें खामोश हैं ,

हौले -हौले

भाव -विचार -संवेदना भी

खामोश हो रहे हैं ,

राह के बीच मैं

बना , रिश्ता

जो ,

किले की दीवार सा

दृढ़ हो चला था ,

अब ,

रेत के ढेर सा ,

बिखर रहा है ,

दूर -दूर तक

खामोशी ही

आवाज लगाती है ,

खामोशी ही

साथ रह गई है ।

रेनू ...

Tuesday, September 15, 2009

आपाधापी


जीवन की आपाधापी में

कोई ,

द्रुत गति से

रास्ते बना रहा है ,

कोई ,

व्यापार , राजनीति और

संसार के झंझट में

उलझा है ,

कोई ,

पारिवारिक दांवपेंच के

जाल में

स्वयं ही फंस रहा है ।

कोई ,

मदिरालय की सीढियां

रोज चढ़कर भी

नीचे ही गिर रहा है ,

कोई ,

समाज सुधारक बन

वक्त गुजार रहा है ,

ख़ुद सुधर रहा है

समाज ,

सुधारक बिगड़ रहा है ।

कहीं ,

ईंट -गारे के

जंगल उगाए जा रहे हैं ,

पंछियों के आशियाँ

उजाडे जा रहे हैं ,

कहीं ,

धुआं छोड़ती मोटरें

मौत बाँट रही हैं ,

प्यासे शावक

बादल निहार रहे हैं ,

कहीं ,

शासक मधु चषक

गटक रहे हैं ,

बाहर

निराहार सेविका

मजदूरी मांग रही है ,

ये कैसी ,

बिडम्बना है?

कैसा तमाशा है ?

जिन पर ,

भरोसा कर कहते हैं ,

उनसा बनो ,

कमबख्त वे ही ,

यहाँ ,

विश्वास लुटा रहे हैं ,

कहाँ ?

देखें , जीवन का उजाला ,

इस ,

आपाधापी में

सब ,

भागते ही जा रहे हैं ।

रेनू ...

Saturday, August 29, 2009

क्योंकि , मैं , माँ हूँ .


कितनी रातें जागकर

तुम्हें ,

थपथपाया था ,

अनगिनत पलों में

तुम्हें ,

सीने से लगाया था ,

बार -बार

ढाल बनकर

आ गई

तुम्हारे सामने

जब ,

पिता ने फटकारा है ,

कई बार ,

मन्दिर के आले से

पचास का नोट

निकल कर थमाया है ,

कितनी बार ,

रात के अंधेरे में

खिड़की से झांकती

तुम्हारी परछाईं देखकर

कुण्डी खोली है ,

अनेकों बार ,

पिता की खून

छलछलाती

आंखों के ताप से

तुम्हें , बचाया है ,


उलाहना नही देती ,

सुनहरे पलों को

जी रही हूँ ,

जब तुम ,

बोलते हो -

माँ !! ऐसा कैसे चलेगा ?

माँ !! तुम असहनीय हो ,

माँ !! तुम हमारे साथ नही रह सकती ,

माँ !! तुम्हारा क्या करें हम ?

माँ !! तुम मरती क्यों नही ?

तब तब , मैं ,

आँगन में दौड़ते

गिरते , उठाते

तुम्हारे क़दमों को देखकर

खुश होती हूँ ,

माँ , बोलते

तोतले शब्दों में

अमृत पान करती हूँ ,

भागकर आते हुए

मेरा आँचल

खींचकर

मचलने पर ,

मैं , मुग्ध होती हूँ ,

क्योंकि , मैं ,

तुम्हारी

माँ , हूँ ।

रेनू ....


Tuesday, August 4, 2009

मैं , जिंदगी हूँ .


पहाडों के शिखर से

कलकलाती , सरसराती

कभी ,

छलांग लगाती हूँ ,

कभी ,

जघन्य वन की

वक्र वीथियों से

सिमटती , सकुचाती

बहती हूँ ,

कभी ,

हरे -भरे मैदानों में

सरपट प्रवाहित

होती हूँ ,

मैं ,

निरंतर जीवंत

प्रानदायनी

नदिया सी

कभी ,

उच्च श्रृंगों पर

प्रतिष्ठित मणि सी

विराजती हूँ ,

कभी ,

बरसाती नाले सी

त्यक्त ,

अपने वजूद को

दर्शाती हूँ ,

कभी ,

विरल थपेडों को

झेलती ,

सुरसरी सी

पूज्यवान

जीवन चक्र के

वायु कृत आवेग को

स्वयं में ,

समाहित करती

हौले -हौले

सरकती हूँ ,

मैं , जिंदगी हूँ ।

रेनू ......

Thursday, July 30, 2009

जाल


वय का बदलाव

है , या

मानसिक विकृति ,

हर रोज ,

तीक्ष्ण दृष्टि से

देख लेता है ।

हौले से

अपशब्दों को

दोहरा लेता है

फ़िर ,

दिनचर्या में मगन भी

उसकी

छटपटाहट ,

यहाँ -वहां

दीख पड़ती है ,

कभी ,

नयन कोर

लाल होते हैं ,

कभी ,

मुठ्ठियाँ भिंच

जाती हैं ,

कभी ,

कागज पर कलम को

पटक देता है ।

निकल जाता है

अनमनी सी

मंजिल की ओर ,

जहाँ जाने से

उसके कदम

सालों पहले

रुक चुके हैं ।

कोई विकल्प नही

कोई रास्ता नही ।

शाम होते ही

घर लौट पड़ता है ।

वक्त के अटके

रहने का भ्रम

उसे ,

उकसाता है ।

कभी ,

बडबडाता है ,

कभी ,

खीन्जता है ,

कभी ,

रीतता है ,

कभी ,

भरता है ,

शाम सरकते ही

गटकने लगता है ,

मद को पानी के साथ

या ,

भ्रम को सच के साथ ।

फ़िर ,

घुर्राता है , दहाड़ता है

दनदनाता है ,

चीखता -चिल्लाता है

अपनी विकृति को

रूप देता है ।

आकार गड़ता है ,

कल्पनाओं के ।

नारी के वजूद को

नकारता है ,

नर को नारायण

बनाने का प्रयास

करता है ,

प्रकृति की दुश्वारियों

से तृप्त ,

नारी पर ,

आक्षेप गड़ता है ,

सामाजिक दायरों से

मुक्ति चाहता है ।

भोग विलास की

उन्मुक्तता चाहता है

उसी , नारी से

जिसे ,

पलभर पहले ,

सींचा था

उलाहनों और धिक्कारों से

उसकी मौजूदगी चाहिए ,

अपने विकार के

वमन के लिए ,

हिंस्त्र भाव के

व्यवहार के लिए ।

जीवन की इस

अवस्था में ,

क्यों ?

इस तामसिक

वृत्ति का घेरा है ,

रोज -रोज

शमशान से

लौट कर भी ,

क्यों ?

समझ नही आता ,

अपना अस्तित्व ।

क्यों ?

हम , गिरफ्त में हैं ,

अपने ही जाल के ।

रेनू शर्मा ......

Saturday, June 20, 2009

पिता


वटवृक्ष सा

विस्तृत , गंभीर

सघन , शीतल

पिता ,

दूर से आती

दुराव , घृणा

अशांति से

घरोंदे को

बचा लेता है ।

सूरज की तपती

घूप से

छुपा कर ,

भीनी छाँव

देता है ।

हौसला गर

खोने लगे

तब ,

बैशाखी बन

टिक जाता है ।

छोटी -छोटी

मुस्कान पर

चहकने वाला , पिता ,

आंसुओं के साथ

बहने लगता है ।

जीवन पथ का

दिया बन ,

राह सुझाता है ,

पिता ।

रेनू ...

Friday, June 12, 2009

छितिज

मत भूलना कि
भीड़ की स्मृति होती है बहुत कमरखना
दृष्टी क्षितिज पर,
चलते हुए उस पथ पर,
जो ले जायेगा तुम्हें अनंत तक,
लिए काँपता ह्रदय अंतर में,
और लेकर प्रेरणा किसी के पदचिन्हों से,
क्षितिज को छू पाने की छटपटाहट के साथ,
तुम छोड़ कर उस भीड़ को,
और अपने नीड़ की सुखद ऊष्मा को,
बढोगे जब तुम आगे,
तब पाओगे,
कि चलने से तुम्हारे कोई नहीं तड़पा,
और न भरी आँख किसी की,
और जो नहीं चाहता चलना इस पथ पर,
समझ लो उसके लिए तुम रहे ही नहीं,
मत भूलना कि भीड़ की स्मृति होती है बहुत कम,
जब चलने वालों को
रोकने में नहीं हो पाती सफल,
और नहीं मिला पाती अपने में,
तब छोड़ कर उसकी चिंता
सिमिट जाती है अपने में,
करती है इन्तजार किसी और चलने वाले का,
जो चलेगा कभी
तुम्हारे पदचिन्हों से लेकर प्रेरणा,
तुम तो बस चलते जाना मत
रुकना,बस
चलते ही जाना,
चलते चलते पहुंचोगे जब क्षितिज तक
,और जब लगेगा तुम्हें कि
अब छुआ क्षितिज को,
तब ,पाओगे तुम स्वयं को ही
वहाँ, स्वागत भी करोगे स्वयं, स्वयं का ही
वहाँ, पर जब तक ऐसा न हो ,
तक मत रुकना,
लेकर स्वप्न आखों
में बस चलते जाना,
पथिक रुकना मत
बस चलते जाना................
शैलेन्द्र॥

tyaag

छोड़ कर सुखद ऊष्मा नीड़ की अपने,
छोड़ कर मोह अपनों का जब चलोगे,
उस अज्ञात पथ पर लिए काँपता ह्रदय,
और स्वप्न आँखों में,
तुम पाओगे एक भीड़ पथ पर,
जो लगेगी पहले अपनी सी,
रोके हुए पथ को,
उसे देख कर तुम संभल जाना पहले ही,
समझ लेना यह भीड़ है उनकी,
जो डरते हैं चलने से,
और चलने वालों से रखते हैं ईर्ष्या भी,
वे रोकेंगे तुम्हें,
चाहेंगें तुम्हें बनाना भीड़ का ही अंग,
पर तुम दृष्टि न हटाना क्षितिज से,
मत सुनना भीड़ का प्रलाप,
वह डरायेगी तुम्हें और जब डरा नहीं पायेगी,
तब धिक्कारेगी भी,
पर तुम मत रुकना भीड़ के पास,
लेकर काँपता ह्रदय और पूंजी जीवन की,
देखते हुये क्षितिज,
अनंत में कहीं समाप्त होते से लगते हुये उस पथ पर,
तुम चलते जाना मत रुकना........
बस चलते जाना...........

lalak

क्षितिज को छू लेने कि ललक,
जब देगी प्रेरणा तुम्हें चलने की,
और तुम पाओगे अनंत तक फैला हुआ पथ,
सामने अपने.
तब कभी चले न होने से काँपेगा ह्रदय तुम्हारा,
कहेगा मन तुम्हारा तुम्हीं से,
रुक जाओ कहाँ जाते हो,
कहाँ मिलेगी उन संबंधों की यह सुखद गरमाहट,
जिन्हें तुम समझते हो अपना,
और वे दो जिनके माध्यम से आये हो तुम अस्तित्व में,
क्या तोड़ सकोगे,
उनकी निकटता का सुखद सा बंधन,
लगेगा बड़ा कठिन तोड़ना,
जब कठिन बहुत लगे छोड़कर चलना सब कुछ,
तब देखना बस एक बार बस एक बार,
क्षितिज की ओर,
जहां दिखाई देगा पथ तुम्हें अनंत से मिलता हुआ,
ले लेना तुम प्रेरणा उसी से,
और बस चल पड़ना,
चलते चलते खीचेगी तुम्हें,
नीड़ की वह सुखद सी ऊष्मा,
पर तुम लेकर जीवन की पूँजी और थोडा साहस,
ह्रदय में कर लेना सामना,
आँधियों ओर तूफानों का,
जो मिलते हैं पथ पर धूल से भरे हुए,
तुम तो बस देख क्षितिज की ओर,
चलते जाना मत रुकना,
पथिक! बस चलते ही जाना................

o pathik

जीवन पथ पर चलते हुये,
करुणा के बंधन से बचते हुये,
पथ पर बिखरी धूल से लेते हुये प्रेरणा,
उसी धूल को माथे पर चडाते हुये,
जब बढोगे आगे छू लेने क्षितिज अपना,
लिये जीवन का पाथेय.
तुम्हारे ही हृदय कि प्रेरणा,
जब दिखा रही होगी मार्ग तुम्हें,
चल रहे होगे जब तुम अपनी ही धुन में,
और दृष्टि होगी तुम्हारी क्षितिज पर,
जिसे छू लेने तुम कभी चले थे,
चल रहे होगे चलते ही जा रहे होगे,
उसे छू लेने को,
पथ पर चलते हुये कहीं मिलेगा तुम्हें बैठा,
निश्चिंत कोई रास्ते के किनारे,
वह,जो नहीं पथ पर बिखरी धूल का हिस्सा,
और न खाई होगी उसने ठोकर,
न होगी उसे क्षितिज को छू लेने की बैचनी,
ओ पथिक!
मिले जब तुम्हें कोई ऐसा बैठा निश्चिंत,
तो कुछ क्षण रुकना,
यह होगा वही जिसके पद चिन्हों से लेकर प्रेरणा,
तुम चलते ही जा रहे हो,
आया होगा वह क्षितिज को छूकर,
शायद तुम्हीं को कुछ बताने,
तुम रुकना,बैठना पास उसके,
और ले लेना उसका अनुभव,
पर देखना लेना उसे,
पसार कर झोली अपने ह्रदय की,
वही देगा प्रेरणा तुम्हें क्षितिज को छू पाने की,
उसका अनुभव ही होगा पाथेय तुम्हारा,
और शायद लक्ष्य भी वही होगा,
तुम ह्रदय में रख उसे आगे बढ जाना,
फिर छू लेने से पहले क्षितिज,
तुम रुकना मत बस चलते ही जाना.............

jeevan path

पथ पर चलते हुए तुम मत डरना,
और न घबराना कि आगे क्या होगा,
चल पाओगे तुम कि नहीं,
खा जाओगे कहीं ठोकर,
क्या पा सकोगे क्षितिज को अपने,
तुम मत डरना जीवन पथ पर,
थाम कर जीवन की उंगली और ह्रदय में प्रेरणा,
तुम चलो तो चलते जाना,
चलते चलते तुम,
पाओगे कि जीवन पथ वह पथ है जो,
स्वयं पर चलने वालों को,
जो चले हैं सहारे जीवन के,
ले कर प्रेरणा ह्रदय में,
कभी लापरवाह नहीं होने देता,
उन्हें,जो चले हैं छू लेने क्षितिज को,
ले कर स्वांसों की पूँजी और पाथेय जीवन का,
यह पथ है जीवन का जिस पर चलने वाला,
थकने लगता है ,खोने लगता है पुरानी स्मृतियों में,
हटने लगती है दृष्टि तब क्षितिज से,
इस पथ कि एक ठोकर कर देती है उसे सतर्क,
और जागरूक कि चलते रहना,
स्मृतियों में खो मत जाना,
तुम्हें चलना है बहुत आगे,
पथिक लेकर पाथेय जीवन का ,
तुम छू लेने को क्षितिज बस चलते ही जाना...............

prerna

प्रारम्भ किया था तुमने,
कर के स्वीकार चुनौती,
जानने सामर्थ स्वयं की,
जानने सीमायें स्वयं की,
तुम चले और चलते ही रहे,
छू लेने को क्षितिज,स्वयं की सामर्थ का,
तुम चले और चलते ही गये,
चलते चलते जी लिया तुमने अपना जीवन,
पर तुम नहीं रुके चलते ही रहे,
पहुँच जाओ जब क्षितिज तक,
सफल हो जाओ जब छूलेने में उसे,
तब देखना तुम कभी पीछे मुड कर,
तुम पाओगे दूसरे चलने वाले,
पथिक!
देखकर तुम्हारे ही छोडे हुये पदचिन्हों को,
जिन्हें तुम छोड़ गये थे जीवन पथ पर,
बिखरी हुई समय की रेत पर,
चलते हुये पथ पर जीवन के,
प्रेरित हो रहे हैं ,
तुम्हीं से हाँ तुम्हीं से,
देखते हुये पदचिन्ह तुम्हारे ही,
कर रहे होंगें कल्पना यही की कैसा होगा वह,
जो छोड़ गया पदचिन्ह,
वही पदचिन्ह,
जिनसे मिल रही है प्रेरणा,चलने वालों को,
कैसा होगा वह पथिक,अब सामने तो नहीं,
छू चुका होगा शायद क्षितिज अपना,
पर याद किया जा रहा है,
उससे जो वह छोड़ गया पीछे,
पथिक!
जब तक छू न लो क्षितिज अपना,
तब तक बस चलते जाना,
बनने प्रेरणा चलने वालों की तुम बस चलते जाना.............

sahara

इस पथ पर चलते चलते,
मिलेंगे तुम्हें अनेक खाकर ठोकर गिरने वाले,
जागेगी करुणा तुम्हारे ह्रदय में उन्हें देख,
जिसका जागना भी होगा स्वाभाविक,
पर सावधान !
सहारा देने उन्हें रुक मत जाना,
यदि तुम रुके तो,सहारा देने ठहरे तो ,
जानलो कि थाम लेंगे तुम्हें ठोकर खाये हुये इतने कि,
संभव नहीं हो पायेगा पथ पर बढना आगे तुम्हारा,
रह जाओगे तुम भी वहीं,
ठोकर खाकर गिरे हुओं के बीच,
करुणा फंसा देती है व्यक्ति को,
सहारा देने के बंधन में ,
और यदि तुम बंध गये इस बंधन में तो,
फिर चल नहीं पाओगे,
रह जाओगे वहीं सहारा देने के भ्रम में,
देखो जब तुम ठोकर खाकर गिरने वालों को,
तो तुम देना उन्हें सहारा प्रेरणा का,
गिरे हुये को देख,
कहकर उससे कि उठो तुम और चल सकते हो,
आगे बढ जाना,
यही होगा वह सहारा जो जन्मेगा तुम्हारी करुणा से,
जिससे मिलेगा ठोकर खाकर गिरने वालों को,
प्रेरणा का सहारा,
तुम्हें देख आ़गे जाता,
गिरा हुआ भी उठेगा लगाकर अपनी पूरी शक्ति,
और प्रारम्भ कर देगा फिर चलना,
अपने थके हुये बोझिल पावों से,
तुम बस उसकी प्रेरणा बन जाना,
पथिक,तुम बस चलते ही जाना...............

path

जीवन पथ पर चलते हुये,
आगे जाने की जल्दी में,
रखना तुम हमेशा याद,
उन्हें जो बन गये धूल,
क्योंकि कंही रुक गये थे वो,
मत करना घृणा इस धूल से,
मत समझना तुम श्रेष्ठ स्वयं को इस धूल से,
क्योंकि थक कर गिर जाने वाले धूल हो गये,
नहीं हो पाये सफल पहुँचने में वंहा,
जंहा जाने के लिये उन्होंने कभी किया था प्रारम्भ,
देंगे वही प्रेरणा तुम्हें!
नहीं रुकने देगा तुम्हें उनका यही अनुभव,
जो गिर कर कहीं धूल बन गये,
याद रखना जीवन पथ पर बिखरी इस धूल को,
तुमें काँटों से बचायेगी यही धूल, हाँ यही धूल,
यह न होती तो न जाने कितने शूल तुम्हें चुभ जाते,
यह पथ को तुम्हारे सुखद बनायेगी,
चलते हुये यदि रुक पाओ तो रुकना,
उठाना इसे हाँ इसी धूल को ,
और लगाना माथे से,
क्योंकि!यही है वह परिणाम जो रोकेगा तुम्हें रुकने से,
और पहुँचायेगा वहां जहां पहुचने के लिये,
चलना प्रारम्भ किया था तुमने,
यदि कभी न भी,पहुंच पाओ लक्ष्य तक,
तब भी मत होना तुम उदास,
मिलकर पथ पर फैली हुई धूल में,
बन जाना तुम भी धूल,
धूल बनकर पथ की तुम भी आनंदित हो पाओगे,
अपने बाद आने वालों का मार्ग सुगम करने में,
बनकर धूल भी तुम सफल हो जाओगे..........

abhivykti

जानते हो अभिव्यक्ति क्या होती है ?
बता सकते हो अभिव्यक्ति क्या होती है ?
क्या सोच पा रहे हो अभिव्यक्ति क्या होती है ?
कोई कैसे अभिव्यक्त करता है ,
वह जो उमड़ता है उसके अंतर से ?
नहीं जानते तो सुनो-
जिसकी फूटती है अभिव्यक्ति,
वह लेकर भावों की कलम,
डुबो कर उसे अपने ह्रदय में ,
बनाकर खून को स्याही ,
लिख देता है जीवन पर कुछ पंक्तियाँ !
यही होती है अभिव्यक्ति,
हाँ , होती है अभिव्यक्ति यही ,
यह लेखन नहीं होता ,
यह अभिव्यक्ति होती है ,
जो लिखी जाती है खून की स्याही से ,
भावों की कलम लेकर ,
जीवन के पन्नों पर....................

Tuesday, June 9, 2009

पुष्पांजलि


ये दिल्ली , ये पालम , गधों के लिए है ,

ये रसिया , ये बालम , गधों के लिए है ।


जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है ,

जो माइक पर चीखे वो , असली गधा है ।


मैं, क्या बक रहा हूँ , ये क्या कह गया हूँ ,

नशे की पिनक में , कहाँ बह गया हूँ ।


आदित्य जी ने व्यंगात्मक आक्षेप यदि समाज के श्रेष्ठ लोगों के लिए किया है , तब उसी व्यंग को अपनी गर्दन पर भी नश्तर की तरह चला लिया है । रचना करना कोई आसन काम नही है , किसी भी स्तिथि में स्वयं को डुबो देना पड़ता है , तब ह्रदय के तार झंकृत होते हैं और भाव प्रवाहित होने लगते हैं । संवेदनाओं और जज्वातों का झंझावात ही किसी कवि को लेखन के लिए उकसाता है । उसके बाद अपनी कही बात को हजारों लोगों के सामने , भीड़ में , महत्ता से कहना अत्यधिक कठिन काम है । यह सब खूबियाँ कवियों में समाहित होतीं हैं ।

बारह बरस पहले भोपाल के व्यवसायिक मेले में एक हास्य कवि सम्मलेन की जगमगाती रात में पहली बार इन श्रेष्ठ कवियों को सुनने का अवसर मिला । शीत की कंपकपाती रात थी , अख़बारों में कवियों की नामावली लिखी थी - श्री गोपाल दास नीरज , आदित्य जी , सुरेन्द्र शर्मा जी , अशोक चक्रधर जी ,। और सात आठ कवि -कवियित्री थे , मंच सञ्चालन मेरठ के युवा कवि कुमार विश्वास कर रहे थे । हजारों की भीड़ में हम वी. आई. पी पास लेकर आगे बैठने का प्रयास कर रहे थे जबकि हमारा पास उस समय फेल हो गया जब , मध्य प्रदेश के तमाम मंत्री नेता जम कर बैठ गए ।

किसी तरह जगह बनने के बाद पीछे मुड कर देखा तो , पंडाल का छोर नजर नही आया । ग्यारह बजे के बाद जब शब्दों की दुनाली चलनी शुरू हुई तब , सबके होश उड़ रहे थे । चक्रधर जी ने साहित्यिक शब्दों की चाशनी में लबरेज किसी युवती को जबरदस्ती नदी पार कराने का भरसक प्रयास किया था । कुमार विश्वास मंच सञ्चालन की विशेष योग्यता का परिचय दे रहे थे । आदित्य जी ने श्रोताओं को बांधना शुरू किया -


शेर से दहाडो मत , हाथी से चिंघाड़ओ मत ,

ज्यादा गला फाडो मत , श्रोता डर जायेंगे ,

घर के सताए हुए आए हैं , बेचारे यहाँ ,

यहाँ भी सताओगे , तो ये किधर जायेंगे ?


फ़िर चिरपरिचित शैली में लाल किले की प्राचीर से जो उद्घोष किया था , वह कर डाला । भाव , विचार , शब्द और व्यंग की डोर से श्रोताओं को खींचना कुछ ही रचनाकारों के बस की बात है । सुरेन्द्र शर्मा जी ने अपनी श्री मतीजी को हर समय अपने साथ बांधकर रखने का बीडा उठाया है , तो उन्होंने वह कसम भी पूरी की ।

एक अनोखा रोमांच हमारी रगों में प्रवाहित हो रहा था । एक व्यक्ति बीच में उठा , सबको लांघता हुआ जाने लगा शायद लघु शंका निवारण करना हो , तभी आदित्य जी बोल पड़े - भाई मेरे कहाँ जा रहा है ? बैठे रहो , रात की इस तन्हाई में घर में घुसोगे तो पत्नी भी दरवाजा नही खोलेगी , वापस यहीं आना पड़ेगा । उनकी शब्द अदायगी इतनी मजाकिया थी कि पूरा पांडाल खिलखिला उठा ।

रह -रह कर कवि सम्मलेन हमारे मन को कुरेद रहा है । प्रदीप चौबे जी मिश्री घोलकर शब्दों की कटार चला रहे थे । नीरज जी अंत तक मंच पर नहीं पधार पाए शायद मैं की अधिकता में हम सबको बिसार दिया था । उस हास्य कवि सम्मलेन की यादें स्मृत हो आईं हैं । कैसे सम्मोहन का जाल बिछ जाता है , एक -एक शब्द की हुंकार को हम निगलने लगते हैं । जब किसी कवि की रचना से श्रृंगार रस टपकता है तब , बरबस ही हम स्वेद की तरंगों से झंकृत हो उठते हैं , कैसे वीर रस की कविता सुनकर हम कवि के साथ ही वीर नायक बन देश के प्रहरी बन जाते हैं । अजब सा जादू होता है कवियों की शब्दावली में , उनकी कलम की धार में ।

ओम जी को जब देखा तो वे विष्णु के वामन रूप धारी ही लगे । माँ के प्रति शब्दों का समर्पण इतना प्रभावी था कि ममत्व के रस से सबको घायल कर दिया था । संबंधों को लेकर जो रिक्तता हम सभी के दिलों में बैठती जा रही है वह ओम जी के आने से घुलने लगी थी ।

पिता ने जब ,

बेटे की अंगुली पकड़ रखी है ,

सच सारे सपने हैं ,

घर में अगर पिता है ,

तो बाहर के सारे

खिलोने अपने हैं ।


अब इन नातों की शून्यता को कवि लाड शिंग गूर्जर ने भी अनुभव की , अन्तिम बानगी में माँ को सब कुछ समर्पित कर दिया ।

हमारी पीर पर वो मोम सी पिघलती है ,

कभी मशाल , कभी दीप बनकर जलती है ,

यकीन मानिये जहाँ -जहाँ भी जाते हैं ,

दुआएं माँ की सदा साथ चलती हैं ।


नीरज पुरी ने बेटियों को दिल से लगा लिया , ओज , संवेदना और हास्य को शब्दों की माला में गूंथकर जो हार मंच पर चढाया जाता है , वह हर कवि की योग्यता की खुली किताब ही होता है । त्याग , समर्पण और आध्यात्म ने ही आदित्य जी से कहलवा दिया कि -

मृत्यु का बुलाबा जब भेजेगा ,

तो आ जाऊंगा ।

तालियाँ न पीटोगे तो ,

गालियाँ सुनाऊंगा ।

साथ न दोगे तो ,

फसाद कर जाऊंगा ....


और अन्तत : फसाद करते हुए ही सब लोग विदा हो गए ।

कविताई रिक्तता तो चिर स्थाई है । उनके मंगल पथ के लिए ईश्वर से प्रार्थना है ।

जीवन की प्राप्ति ,

काल की अंधी दौड़ है ।

निरंतर काल को ही समर्पित ,

चिरकाल तक .....

रेनू शर्मा ...

Monday, May 18, 2009

जाल


वय का बदलाव है

या विक्रति ,

हर रोज

तीक्ष्ण दृष्टि से

देख लेता है ,

हौले से

अपशब्दों को

दोहरा लेता है ,

फ़िर

चर्या में मगन , भी

उसकी छटपटाहट

यहाँ -वहां

दीख पड़ती है

कभी ,

नयन कोर

लाल होते हैं ,

कभी ,

मुठ्ठियाँ भिंच जाती हैं ,

कभी , कागज पर

कलम पटक देता है ,

अल्पाहार ले

निकल जाता है ,

अनमनी सी

मंजिल की ओर ,

जहाँ जाने से

उसके कदम

सालों पहले

रुक चुके थे ।

कोई विकल्प नहीं

कोई रास्ता नहीं ।

शाम होते ही

घर लौट पड़ता है ,

वक्त के अटके

रहने का भ्रम

उसे , उकसाता है ।

कभी ,

बडबडाता है

कभी ,

खींजता है ,

कभी ,

रीतता है , कभी

भरता है ।

शाम सरकते ही

गटकने लगता है

मद को पानी के साथ

या ,

भ्रम को सच के साथ ।

फ़िर ,

घुर्राता है

दहाड़ता है ,

दनदनाता है ,

चीखता -चिल्लाता है ,

अपनी विक्रति को

रूप देता है ।

कल्पनाओं के

आकार गड़ता है ।

नारी के वजूद को

नकारता है ,

प्रकृति की दुश्वारियों से

तृप्त ,

नारी पर

आक्षेप गड़ता है ।

सामाजिक दायरों से

मुक्ति चाहता है ,

भोग -विलास की

उन्मुक्तता चाहता है ,

उसी से ।

जिसे ,

पल भर पहले ,

सींचा था उलाहनों ओर

धिक्कारों से ।

उसकी ,

मौजूदगी चाहिए ,

अपने विकार वमन के लिए ।

हिंस्त्र भाव के

उदगार के लिए ।

रोज -रोज शमशान से

लौट कर भी

क्यों ?

अस्तित्व समझ नही आता ?

हम क्यों ?

अपने ही जाल की

गिरफ्त में हैं ।

रेनू शर्मा .....

Wednesday, May 13, 2009

राख


कुछ लम्हे पूर्व
मेरी सांसें
जिन्दा थीं ,
मेरा वजूद

स्वीकार्य था ,
माटी में
सिमटने को
बेकरार मैं ,
डगमगा रही थी ,
सब अपने
लापरवाह थे
यकायक एक ,
तूफ़ान सा
फ़ैल गया ,
मेरा पहलु
मुझसे ही
बिछुड़ गया ,
बेसुध हो
चली गई
अनंत में
मेरे अपने
भयभीत हो
दूर हो गए ,
जो सिमट रहे थे
मेरे भीतर
वे , छिटक गए ।
माटी के ढेर सा
मृत शरीर
अस्पर्श्य सा ,
किनारे आ गया ।
मैं ,
तनहा , उन्हें देख रही थी ।
क्यों नही समझ पाई
इस , दूरी को ।
आज ,जब ,जा रही हूँ ।
तब ,
समझ पा रही हूँ
इस ,
माया जाल को ।
माटी सी, तो ,
पहले भी थी
अब ,
राख बन गई हूँ ।

रेनू शर्मा .....

Sunday, May 10, 2009

माँ


भू के अन्तः में

दबी -छिपी

ज्वाला सी ।

दिन -रात उफनती

नदी सी ।

पल -पल घोंसला

सभालती गौरैया सी ।

दरख्त के खोंगल में

छुपे शिशु तोतों को

दाना चुगाती तोती सी ।

दूर विन्ध्य के जंगल में

ऊंचे वृक्ष पर बैठे

गीद को उड़ना सिखाती गिद्द सी ।

बाड़े की ओट में

बैठी ,

बछडे का मुंह चाटती

गैया सी ।

भूखे बच्चों के लिए

शिकार लाती शेरनी सी ।

माँ ,

हर दिन बच्चों में

जीती मरती है ,

विशाल ह्र्दाया माँ

तुझे सलाम ।

रेनू ....


Thursday, May 7, 2009

जाने क्यों ?


जाने क्यों ?

गाँव की भीनी

खुशबू में ,

अब ,

शहर की महक आती है ।

मिटटी के घडे का पानी

अब ,

बोतलों में बंद बिकता है ।

चिलचिलाती धुप में

जब ,

चक्कन और ताश की

बाजी चलती थी

अब , सास बहु की नोंक -झोंक

और वीडियो गेम चलते हैं ।

सुहानी शाम को

बरगद की छाँव तले

जब ,

मल्हार , फाग , तराने

आल्हा - ऊदल के दीवाने

अड़ जाया करते थे ,

अब ,

सिनेमाघर के बंद

दरवाजे में

अंग्रेजी साहित्य

गर्माता है ।

रात की चाँदनी में

नीले आकाश की

चादर तले

जब ,

तारों से बातें होतीं थीं ,

ग्रहों पर ,

बसेरा बनता था ।

अब ,

रात भर खुमारी में

घिरा इंसान

दिन की धुप को

कोसता है ।

जाने क्यों ?.....

रेनू शर्मा ...