Saturday, June 20, 2009

पिता


वटवृक्ष सा

विस्तृत , गंभीर

सघन , शीतल

पिता ,

दूर से आती

दुराव , घृणा

अशांति से

घरोंदे को

बचा लेता है ।

सूरज की तपती

घूप से

छुपा कर ,

भीनी छाँव

देता है ।

हौसला गर

खोने लगे

तब ,

बैशाखी बन

टिक जाता है ।

छोटी -छोटी

मुस्कान पर

चहकने वाला , पिता ,

आंसुओं के साथ

बहने लगता है ।

जीवन पथ का

दिया बन ,

राह सुझाता है ,

पिता ।

रेनू ...

Friday, June 12, 2009

छितिज

मत भूलना कि
भीड़ की स्मृति होती है बहुत कमरखना
दृष्टी क्षितिज पर,
चलते हुए उस पथ पर,
जो ले जायेगा तुम्हें अनंत तक,
लिए काँपता ह्रदय अंतर में,
और लेकर प्रेरणा किसी के पदचिन्हों से,
क्षितिज को छू पाने की छटपटाहट के साथ,
तुम छोड़ कर उस भीड़ को,
और अपने नीड़ की सुखद ऊष्मा को,
बढोगे जब तुम आगे,
तब पाओगे,
कि चलने से तुम्हारे कोई नहीं तड़पा,
और न भरी आँख किसी की,
और जो नहीं चाहता चलना इस पथ पर,
समझ लो उसके लिए तुम रहे ही नहीं,
मत भूलना कि भीड़ की स्मृति होती है बहुत कम,
जब चलने वालों को
रोकने में नहीं हो पाती सफल,
और नहीं मिला पाती अपने में,
तब छोड़ कर उसकी चिंता
सिमिट जाती है अपने में,
करती है इन्तजार किसी और चलने वाले का,
जो चलेगा कभी
तुम्हारे पदचिन्हों से लेकर प्रेरणा,
तुम तो बस चलते जाना मत
रुकना,बस
चलते ही जाना,
चलते चलते पहुंचोगे जब क्षितिज तक
,और जब लगेगा तुम्हें कि
अब छुआ क्षितिज को,
तब ,पाओगे तुम स्वयं को ही
वहाँ, स्वागत भी करोगे स्वयं, स्वयं का ही
वहाँ, पर जब तक ऐसा न हो ,
तक मत रुकना,
लेकर स्वप्न आखों
में बस चलते जाना,
पथिक रुकना मत
बस चलते जाना................
शैलेन्द्र॥

tyaag

छोड़ कर सुखद ऊष्मा नीड़ की अपने,
छोड़ कर मोह अपनों का जब चलोगे,
उस अज्ञात पथ पर लिए काँपता ह्रदय,
और स्वप्न आँखों में,
तुम पाओगे एक भीड़ पथ पर,
जो लगेगी पहले अपनी सी,
रोके हुए पथ को,
उसे देख कर तुम संभल जाना पहले ही,
समझ लेना यह भीड़ है उनकी,
जो डरते हैं चलने से,
और चलने वालों से रखते हैं ईर्ष्या भी,
वे रोकेंगे तुम्हें,
चाहेंगें तुम्हें बनाना भीड़ का ही अंग,
पर तुम दृष्टि न हटाना क्षितिज से,
मत सुनना भीड़ का प्रलाप,
वह डरायेगी तुम्हें और जब डरा नहीं पायेगी,
तब धिक्कारेगी भी,
पर तुम मत रुकना भीड़ के पास,
लेकर काँपता ह्रदय और पूंजी जीवन की,
देखते हुये क्षितिज,
अनंत में कहीं समाप्त होते से लगते हुये उस पथ पर,
तुम चलते जाना मत रुकना........
बस चलते जाना...........

lalak

क्षितिज को छू लेने कि ललक,
जब देगी प्रेरणा तुम्हें चलने की,
और तुम पाओगे अनंत तक फैला हुआ पथ,
सामने अपने.
तब कभी चले न होने से काँपेगा ह्रदय तुम्हारा,
कहेगा मन तुम्हारा तुम्हीं से,
रुक जाओ कहाँ जाते हो,
कहाँ मिलेगी उन संबंधों की यह सुखद गरमाहट,
जिन्हें तुम समझते हो अपना,
और वे दो जिनके माध्यम से आये हो तुम अस्तित्व में,
क्या तोड़ सकोगे,
उनकी निकटता का सुखद सा बंधन,
लगेगा बड़ा कठिन तोड़ना,
जब कठिन बहुत लगे छोड़कर चलना सब कुछ,
तब देखना बस एक बार बस एक बार,
क्षितिज की ओर,
जहां दिखाई देगा पथ तुम्हें अनंत से मिलता हुआ,
ले लेना तुम प्रेरणा उसी से,
और बस चल पड़ना,
चलते चलते खीचेगी तुम्हें,
नीड़ की वह सुखद सी ऊष्मा,
पर तुम लेकर जीवन की पूँजी और थोडा साहस,
ह्रदय में कर लेना सामना,
आँधियों ओर तूफानों का,
जो मिलते हैं पथ पर धूल से भरे हुए,
तुम तो बस देख क्षितिज की ओर,
चलते जाना मत रुकना,
पथिक! बस चलते ही जाना................

o pathik

जीवन पथ पर चलते हुये,
करुणा के बंधन से बचते हुये,
पथ पर बिखरी धूल से लेते हुये प्रेरणा,
उसी धूल को माथे पर चडाते हुये,
जब बढोगे आगे छू लेने क्षितिज अपना,
लिये जीवन का पाथेय.
तुम्हारे ही हृदय कि प्रेरणा,
जब दिखा रही होगी मार्ग तुम्हें,
चल रहे होगे जब तुम अपनी ही धुन में,
और दृष्टि होगी तुम्हारी क्षितिज पर,
जिसे छू लेने तुम कभी चले थे,
चल रहे होगे चलते ही जा रहे होगे,
उसे छू लेने को,
पथ पर चलते हुये कहीं मिलेगा तुम्हें बैठा,
निश्चिंत कोई रास्ते के किनारे,
वह,जो नहीं पथ पर बिखरी धूल का हिस्सा,
और न खाई होगी उसने ठोकर,
न होगी उसे क्षितिज को छू लेने की बैचनी,
ओ पथिक!
मिले जब तुम्हें कोई ऐसा बैठा निश्चिंत,
तो कुछ क्षण रुकना,
यह होगा वही जिसके पद चिन्हों से लेकर प्रेरणा,
तुम चलते ही जा रहे हो,
आया होगा वह क्षितिज को छूकर,
शायद तुम्हीं को कुछ बताने,
तुम रुकना,बैठना पास उसके,
और ले लेना उसका अनुभव,
पर देखना लेना उसे,
पसार कर झोली अपने ह्रदय की,
वही देगा प्रेरणा तुम्हें क्षितिज को छू पाने की,
उसका अनुभव ही होगा पाथेय तुम्हारा,
और शायद लक्ष्य भी वही होगा,
तुम ह्रदय में रख उसे आगे बढ जाना,
फिर छू लेने से पहले क्षितिज,
तुम रुकना मत बस चलते ही जाना.............

jeevan path

पथ पर चलते हुए तुम मत डरना,
और न घबराना कि आगे क्या होगा,
चल पाओगे तुम कि नहीं,
खा जाओगे कहीं ठोकर,
क्या पा सकोगे क्षितिज को अपने,
तुम मत डरना जीवन पथ पर,
थाम कर जीवन की उंगली और ह्रदय में प्रेरणा,
तुम चलो तो चलते जाना,
चलते चलते तुम,
पाओगे कि जीवन पथ वह पथ है जो,
स्वयं पर चलने वालों को,
जो चले हैं सहारे जीवन के,
ले कर प्रेरणा ह्रदय में,
कभी लापरवाह नहीं होने देता,
उन्हें,जो चले हैं छू लेने क्षितिज को,
ले कर स्वांसों की पूँजी और पाथेय जीवन का,
यह पथ है जीवन का जिस पर चलने वाला,
थकने लगता है ,खोने लगता है पुरानी स्मृतियों में,
हटने लगती है दृष्टि तब क्षितिज से,
इस पथ कि एक ठोकर कर देती है उसे सतर्क,
और जागरूक कि चलते रहना,
स्मृतियों में खो मत जाना,
तुम्हें चलना है बहुत आगे,
पथिक लेकर पाथेय जीवन का ,
तुम छू लेने को क्षितिज बस चलते ही जाना...............

prerna

प्रारम्भ किया था तुमने,
कर के स्वीकार चुनौती,
जानने सामर्थ स्वयं की,
जानने सीमायें स्वयं की,
तुम चले और चलते ही रहे,
छू लेने को क्षितिज,स्वयं की सामर्थ का,
तुम चले और चलते ही गये,
चलते चलते जी लिया तुमने अपना जीवन,
पर तुम नहीं रुके चलते ही रहे,
पहुँच जाओ जब क्षितिज तक,
सफल हो जाओ जब छूलेने में उसे,
तब देखना तुम कभी पीछे मुड कर,
तुम पाओगे दूसरे चलने वाले,
पथिक!
देखकर तुम्हारे ही छोडे हुये पदचिन्हों को,
जिन्हें तुम छोड़ गये थे जीवन पथ पर,
बिखरी हुई समय की रेत पर,
चलते हुये पथ पर जीवन के,
प्रेरित हो रहे हैं ,
तुम्हीं से हाँ तुम्हीं से,
देखते हुये पदचिन्ह तुम्हारे ही,
कर रहे होंगें कल्पना यही की कैसा होगा वह,
जो छोड़ गया पदचिन्ह,
वही पदचिन्ह,
जिनसे मिल रही है प्रेरणा,चलने वालों को,
कैसा होगा वह पथिक,अब सामने तो नहीं,
छू चुका होगा शायद क्षितिज अपना,
पर याद किया जा रहा है,
उससे जो वह छोड़ गया पीछे,
पथिक!
जब तक छू न लो क्षितिज अपना,
तब तक बस चलते जाना,
बनने प्रेरणा चलने वालों की तुम बस चलते जाना.............

sahara

इस पथ पर चलते चलते,
मिलेंगे तुम्हें अनेक खाकर ठोकर गिरने वाले,
जागेगी करुणा तुम्हारे ह्रदय में उन्हें देख,
जिसका जागना भी होगा स्वाभाविक,
पर सावधान !
सहारा देने उन्हें रुक मत जाना,
यदि तुम रुके तो,सहारा देने ठहरे तो ,
जानलो कि थाम लेंगे तुम्हें ठोकर खाये हुये इतने कि,
संभव नहीं हो पायेगा पथ पर बढना आगे तुम्हारा,
रह जाओगे तुम भी वहीं,
ठोकर खाकर गिरे हुओं के बीच,
करुणा फंसा देती है व्यक्ति को,
सहारा देने के बंधन में ,
और यदि तुम बंध गये इस बंधन में तो,
फिर चल नहीं पाओगे,
रह जाओगे वहीं सहारा देने के भ्रम में,
देखो जब तुम ठोकर खाकर गिरने वालों को,
तो तुम देना उन्हें सहारा प्रेरणा का,
गिरे हुये को देख,
कहकर उससे कि उठो तुम और चल सकते हो,
आगे बढ जाना,
यही होगा वह सहारा जो जन्मेगा तुम्हारी करुणा से,
जिससे मिलेगा ठोकर खाकर गिरने वालों को,
प्रेरणा का सहारा,
तुम्हें देख आ़गे जाता,
गिरा हुआ भी उठेगा लगाकर अपनी पूरी शक्ति,
और प्रारम्भ कर देगा फिर चलना,
अपने थके हुये बोझिल पावों से,
तुम बस उसकी प्रेरणा बन जाना,
पथिक,तुम बस चलते ही जाना...............

path

जीवन पथ पर चलते हुये,
आगे जाने की जल्दी में,
रखना तुम हमेशा याद,
उन्हें जो बन गये धूल,
क्योंकि कंही रुक गये थे वो,
मत करना घृणा इस धूल से,
मत समझना तुम श्रेष्ठ स्वयं को इस धूल से,
क्योंकि थक कर गिर जाने वाले धूल हो गये,
नहीं हो पाये सफल पहुँचने में वंहा,
जंहा जाने के लिये उन्होंने कभी किया था प्रारम्भ,
देंगे वही प्रेरणा तुम्हें!
नहीं रुकने देगा तुम्हें उनका यही अनुभव,
जो गिर कर कहीं धूल बन गये,
याद रखना जीवन पथ पर बिखरी इस धूल को,
तुमें काँटों से बचायेगी यही धूल, हाँ यही धूल,
यह न होती तो न जाने कितने शूल तुम्हें चुभ जाते,
यह पथ को तुम्हारे सुखद बनायेगी,
चलते हुये यदि रुक पाओ तो रुकना,
उठाना इसे हाँ इसी धूल को ,
और लगाना माथे से,
क्योंकि!यही है वह परिणाम जो रोकेगा तुम्हें रुकने से,
और पहुँचायेगा वहां जहां पहुचने के लिये,
चलना प्रारम्भ किया था तुमने,
यदि कभी न भी,पहुंच पाओ लक्ष्य तक,
तब भी मत होना तुम उदास,
मिलकर पथ पर फैली हुई धूल में,
बन जाना तुम भी धूल,
धूल बनकर पथ की तुम भी आनंदित हो पाओगे,
अपने बाद आने वालों का मार्ग सुगम करने में,
बनकर धूल भी तुम सफल हो जाओगे..........

abhivykti

जानते हो अभिव्यक्ति क्या होती है ?
बता सकते हो अभिव्यक्ति क्या होती है ?
क्या सोच पा रहे हो अभिव्यक्ति क्या होती है ?
कोई कैसे अभिव्यक्त करता है ,
वह जो उमड़ता है उसके अंतर से ?
नहीं जानते तो सुनो-
जिसकी फूटती है अभिव्यक्ति,
वह लेकर भावों की कलम,
डुबो कर उसे अपने ह्रदय में ,
बनाकर खून को स्याही ,
लिख देता है जीवन पर कुछ पंक्तियाँ !
यही होती है अभिव्यक्ति,
हाँ , होती है अभिव्यक्ति यही ,
यह लेखन नहीं होता ,
यह अभिव्यक्ति होती है ,
जो लिखी जाती है खून की स्याही से ,
भावों की कलम लेकर ,
जीवन के पन्नों पर....................

Tuesday, June 9, 2009

पुष्पांजलि


ये दिल्ली , ये पालम , गधों के लिए है ,

ये रसिया , ये बालम , गधों के लिए है ।


जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है ,

जो माइक पर चीखे वो , असली गधा है ।


मैं, क्या बक रहा हूँ , ये क्या कह गया हूँ ,

नशे की पिनक में , कहाँ बह गया हूँ ।


आदित्य जी ने व्यंगात्मक आक्षेप यदि समाज के श्रेष्ठ लोगों के लिए किया है , तब उसी व्यंग को अपनी गर्दन पर भी नश्तर की तरह चला लिया है । रचना करना कोई आसन काम नही है , किसी भी स्तिथि में स्वयं को डुबो देना पड़ता है , तब ह्रदय के तार झंकृत होते हैं और भाव प्रवाहित होने लगते हैं । संवेदनाओं और जज्वातों का झंझावात ही किसी कवि को लेखन के लिए उकसाता है । उसके बाद अपनी कही बात को हजारों लोगों के सामने , भीड़ में , महत्ता से कहना अत्यधिक कठिन काम है । यह सब खूबियाँ कवियों में समाहित होतीं हैं ।

बारह बरस पहले भोपाल के व्यवसायिक मेले में एक हास्य कवि सम्मलेन की जगमगाती रात में पहली बार इन श्रेष्ठ कवियों को सुनने का अवसर मिला । शीत की कंपकपाती रात थी , अख़बारों में कवियों की नामावली लिखी थी - श्री गोपाल दास नीरज , आदित्य जी , सुरेन्द्र शर्मा जी , अशोक चक्रधर जी ,। और सात आठ कवि -कवियित्री थे , मंच सञ्चालन मेरठ के युवा कवि कुमार विश्वास कर रहे थे । हजारों की भीड़ में हम वी. आई. पी पास लेकर आगे बैठने का प्रयास कर रहे थे जबकि हमारा पास उस समय फेल हो गया जब , मध्य प्रदेश के तमाम मंत्री नेता जम कर बैठ गए ।

किसी तरह जगह बनने के बाद पीछे मुड कर देखा तो , पंडाल का छोर नजर नही आया । ग्यारह बजे के बाद जब शब्दों की दुनाली चलनी शुरू हुई तब , सबके होश उड़ रहे थे । चक्रधर जी ने साहित्यिक शब्दों की चाशनी में लबरेज किसी युवती को जबरदस्ती नदी पार कराने का भरसक प्रयास किया था । कुमार विश्वास मंच सञ्चालन की विशेष योग्यता का परिचय दे रहे थे । आदित्य जी ने श्रोताओं को बांधना शुरू किया -


शेर से दहाडो मत , हाथी से चिंघाड़ओ मत ,

ज्यादा गला फाडो मत , श्रोता डर जायेंगे ,

घर के सताए हुए आए हैं , बेचारे यहाँ ,

यहाँ भी सताओगे , तो ये किधर जायेंगे ?


फ़िर चिरपरिचित शैली में लाल किले की प्राचीर से जो उद्घोष किया था , वह कर डाला । भाव , विचार , शब्द और व्यंग की डोर से श्रोताओं को खींचना कुछ ही रचनाकारों के बस की बात है । सुरेन्द्र शर्मा जी ने अपनी श्री मतीजी को हर समय अपने साथ बांधकर रखने का बीडा उठाया है , तो उन्होंने वह कसम भी पूरी की ।

एक अनोखा रोमांच हमारी रगों में प्रवाहित हो रहा था । एक व्यक्ति बीच में उठा , सबको लांघता हुआ जाने लगा शायद लघु शंका निवारण करना हो , तभी आदित्य जी बोल पड़े - भाई मेरे कहाँ जा रहा है ? बैठे रहो , रात की इस तन्हाई में घर में घुसोगे तो पत्नी भी दरवाजा नही खोलेगी , वापस यहीं आना पड़ेगा । उनकी शब्द अदायगी इतनी मजाकिया थी कि पूरा पांडाल खिलखिला उठा ।

रह -रह कर कवि सम्मलेन हमारे मन को कुरेद रहा है । प्रदीप चौबे जी मिश्री घोलकर शब्दों की कटार चला रहे थे । नीरज जी अंत तक मंच पर नहीं पधार पाए शायद मैं की अधिकता में हम सबको बिसार दिया था । उस हास्य कवि सम्मलेन की यादें स्मृत हो आईं हैं । कैसे सम्मोहन का जाल बिछ जाता है , एक -एक शब्द की हुंकार को हम निगलने लगते हैं । जब किसी कवि की रचना से श्रृंगार रस टपकता है तब , बरबस ही हम स्वेद की तरंगों से झंकृत हो उठते हैं , कैसे वीर रस की कविता सुनकर हम कवि के साथ ही वीर नायक बन देश के प्रहरी बन जाते हैं । अजब सा जादू होता है कवियों की शब्दावली में , उनकी कलम की धार में ।

ओम जी को जब देखा तो वे विष्णु के वामन रूप धारी ही लगे । माँ के प्रति शब्दों का समर्पण इतना प्रभावी था कि ममत्व के रस से सबको घायल कर दिया था । संबंधों को लेकर जो रिक्तता हम सभी के दिलों में बैठती जा रही है वह ओम जी के आने से घुलने लगी थी ।

पिता ने जब ,

बेटे की अंगुली पकड़ रखी है ,

सच सारे सपने हैं ,

घर में अगर पिता है ,

तो बाहर के सारे

खिलोने अपने हैं ।


अब इन नातों की शून्यता को कवि लाड शिंग गूर्जर ने भी अनुभव की , अन्तिम बानगी में माँ को सब कुछ समर्पित कर दिया ।

हमारी पीर पर वो मोम सी पिघलती है ,

कभी मशाल , कभी दीप बनकर जलती है ,

यकीन मानिये जहाँ -जहाँ भी जाते हैं ,

दुआएं माँ की सदा साथ चलती हैं ।


नीरज पुरी ने बेटियों को दिल से लगा लिया , ओज , संवेदना और हास्य को शब्दों की माला में गूंथकर जो हार मंच पर चढाया जाता है , वह हर कवि की योग्यता की खुली किताब ही होता है । त्याग , समर्पण और आध्यात्म ने ही आदित्य जी से कहलवा दिया कि -

मृत्यु का बुलाबा जब भेजेगा ,

तो आ जाऊंगा ।

तालियाँ न पीटोगे तो ,

गालियाँ सुनाऊंगा ।

साथ न दोगे तो ,

फसाद कर जाऊंगा ....


और अन्तत : फसाद करते हुए ही सब लोग विदा हो गए ।

कविताई रिक्तता तो चिर स्थाई है । उनके मंगल पथ के लिए ईश्वर से प्रार्थना है ।

जीवन की प्राप्ति ,

काल की अंधी दौड़ है ।

निरंतर काल को ही समर्पित ,

चिरकाल तक .....

रेनू शर्मा ...