Saturday, May 10, 2014

माँ

माँ  ,
दो राहे पर
खड़ी थी ,
किस राह पर
चल दे ,
समझ नहीं पा
रही थी ,
दूर ```````
अनजान ,वीरानी
राह पर ,जहाँ
छितिज भी
धूमिल था , कोई
घास नहीं , तिनका नहीं
पत्थर और धूल का
गुबार था ,
बच्चा !! भटक रहा था
असमंजस के हालात थे ,
माँ ,
हताश , निराश
भीगी पलकों से
बच्चे को निहार रही थी ,
अावाज दे रही थी
जो , कंठ में कहीं
अटक रही थी ,
हाथ उठा रही थी
रोकने के लिये , लेकिन
लाचार थी , बेबस सी माँ ,
सुबह के धुंधलके में
बिस्तर पर , अवाक् बैठी
भयानक स्वप्न का
मंजर याद कर
सिहर रही थी
रेणु