तुम ,
शिवालय के
मंडप में
मुझे ,खींच रहे थे
मैं ,बेहताशा ,बाबली सी
अपना दुपट्टा
बाहर ही कहीं ,
गिरा आई थी
तुमने ,मुझे
आगोश में लिया और
कहा ,
मुझसे, दूर मत जाना ,
मेरा , हाथ पकड़ो
साथ ही रहो ,
कुछ तो , अनहोनी
होने जा रही थी ,
मेरी ,सांसें
उखड रहीं थीं ,
तुम ,मेरी आँखों में
समाते जा रहे थे ,
तुम्हारा चेहरा
सफ़ेद पड़ गया था
बाहर से ,लोगों का सैलाव
मंदिर में घुस रहा था ,
मानो ,
शिव !! ही सबको साध लेंगे ,
बाहर ,घनघोर वर्षा
हो रही थी ,
लग रहा था ,आज ही
कृष्ण !!का जन्म
हो रहा हो ,
तभी ,पलभर में
हमारे शरीर
पानी और कीचड़ में
समाने लगे ,
तुम ,
मेरा हाथ थामे थे ,
मैं ,सैलाव के साथ
बह रही थी ,
अचानक एक स्तम्भ
हमारे बीच आ गया ,
तुम्हारा हाथ
मेरे ,हाथ से छूट गया ,
मैं ,
मूर्छित हो चली थी ,
न , संभल पा रही थी
न , बह पा रही थी ,
तुम ,मुझे अपलक देखकर
चीख रहे थे
मैं ,मंदिर प्रांगन में
पानी ,मिटटी ,पत्त्थर के
गारे में
अहिल्या सी ,
जमती जा रही थी ,
मानो ,किसी विश्वामित्र ने
शाप दिया हो ,
तभी ,मेरे आँचल से
कुछ टकराया और
एक प्रस्तर खंड
तुम्हें ,मेरे पास
बहा ले आया ,
हम ,मृतप्राय
एकदूसरे में समाये थे ,
भूमि में गढ़ गये थे ,
धरती हमें,
निवाला बना रही थी ,
फिर हम ,आजाद थे
देख रहे थे ,
जलधारा कैसे ,
हजारों प्राणियों को
रास्ते से हटा रही थी ,
शिव के मंदिर में
महाकाल !!
विकराल बन
संहार कर रहे थे ,
हम ,बादलों के पार
अठखेलियाँ कर रहे थे .
रेनू शर्मा
शिवालय के
मंडप में
मुझे ,खींच रहे थे
मैं ,बेहताशा ,बाबली सी
अपना दुपट्टा
बाहर ही कहीं ,
गिरा आई थी
तुमने ,मुझे
आगोश में लिया और
कहा ,
मुझसे, दूर मत जाना ,
मेरा , हाथ पकड़ो
साथ ही रहो ,
कुछ तो , अनहोनी
होने जा रही थी ,
मेरी ,सांसें
उखड रहीं थीं ,
तुम ,मेरी आँखों में
समाते जा रहे थे ,
तुम्हारा चेहरा
सफ़ेद पड़ गया था
बाहर से ,लोगों का सैलाव
मंदिर में घुस रहा था ,
मानो ,
शिव !! ही सबको साध लेंगे ,
बाहर ,घनघोर वर्षा
हो रही थी ,
लग रहा था ,आज ही
कृष्ण !!का जन्म
हो रहा हो ,
तभी ,पलभर में
हमारे शरीर
पानी और कीचड़ में
समाने लगे ,
तुम ,
मेरा हाथ थामे थे ,
मैं ,सैलाव के साथ
बह रही थी ,
अचानक एक स्तम्भ
हमारे बीच आ गया ,
तुम्हारा हाथ
मेरे ,हाथ से छूट गया ,
मैं ,
मूर्छित हो चली थी ,
न , संभल पा रही थी
न , बह पा रही थी ,
तुम ,मुझे अपलक देखकर
चीख रहे थे
मैं ,मंदिर प्रांगन में
पानी ,मिटटी ,पत्त्थर के
गारे में
अहिल्या सी ,
जमती जा रही थी ,
मानो ,किसी विश्वामित्र ने
शाप दिया हो ,
तभी ,मेरे आँचल से
कुछ टकराया और
एक प्रस्तर खंड
तुम्हें ,मेरे पास
बहा ले आया ,
हम ,मृतप्राय
एकदूसरे में समाये थे ,
भूमि में गढ़ गये थे ,
धरती हमें,
निवाला बना रही थी ,
फिर हम ,आजाद थे
देख रहे थे ,
जलधारा कैसे ,
हजारों प्राणियों को
रास्ते से हटा रही थी ,
शिव के मंदिर में
महाकाल !!
विकराल बन
संहार कर रहे थे ,
हम ,बादलों के पार
अठखेलियाँ कर रहे थे .
रेनू शर्मा
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