Thursday, July 4, 2013

अहिल्या सी

तुम ,
शिवालय के 
मंडप में 
मुझे ,खींच रहे थे 
मैं ,बेहताशा ,बाबली सी 
अपना दुपट्टा 
बाहर  ही कहीं ,
गिरा आई थी 
तुमने ,मुझे 
आगोश में लिया और 
कहा ,
मुझसे, दूर मत जाना ,
मेरा , हाथ पकड़ो 
साथ ही रहो ,
कुछ तो , अनहोनी
 होने जा रही थी ,
मेरी ,सांसें 
उखड रहीं थीं ,
तुम ,मेरी आँखों में 
समाते जा रहे थे ,
तुम्हारा चेहरा 
सफ़ेद पड़ गया था 
बाहर से ,लोगों का सैलाव 
मंदिर में घुस रहा था ,
मानो ,
शिव !! ही सबको साध लेंगे ,
बाहर ,घनघोर वर्षा 
हो रही थी ,
लग रहा था ,आज ही 
कृष्ण !!का जन्म 
हो रहा हो ,
तभी ,पलभर में 
हमारे शरीर 
पानी और कीचड़ में 
समाने लगे ,
तुम ,
मेरा हाथ थामे थे ,
मैं ,सैलाव के साथ 
बह रही थी ,
अचानक एक स्तम्भ 
हमारे बीच आ गया ,
तुम्हारा हाथ 
मेरे ,हाथ से छूट गया ,
मैं ,
मूर्छित हो चली थी ,
न , संभल पा रही थी 
न , बह पा रही थी ,
तुम ,मुझे अपलक देखकर 
चीख रहे थे 
मैं ,मंदिर प्रांगन में 
पानी ,मिटटी ,पत्त्थर के 
गारे में 
अहिल्या सी ,
जमती जा रही थी ,
मानो ,किसी विश्वामित्र ने 
शाप दिया हो ,
तभी ,मेरे आँचल से 
कुछ टकराया और 
एक प्रस्तर खंड 
तुम्हें ,मेरे पास 
बहा ले आया ,
हम ,मृतप्राय 
एकदूसरे में समाये थे ,
भूमि में गढ़ गये थे ,
धरती हमें, 
निवाला बना रही थी ,
फिर हम ,आजाद थे 
देख रहे थे ,
जलधारा कैसे ,
हजारों प्राणियों को 
रास्ते  से हटा रही थी ,
शिव के मंदिर में 
महाकाल !!
विकराल बन 
संहार कर रहे थे ,
हम ,बादलों के पार 
अठखेलियाँ कर रहे थे .

रेनू शर्मा 

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