प्रलय
कई बार
कल्पना की थी
यदि ,
जल प्रलय हुई
तो , क्या मंजर होगा ?
एक , अतिकल्पनाशीलता
हर बार मुझे ,
प्रलय लीलाओं की ओर
धकेलती थी ,
जब ,तस्वीर बनती थी
तब ,
रूह तक कांप जाती थी
लगता था ,कि
नहीं ,ऐसा नहीं हो सकता ,
लेकिन ,
जब ,उत्तराखंड की
त्रासदी का बीभत्स दृश्य देखा
तब ,
अचम्भित हो गई
जैसे ,सबकुछ
दोहराया जा रहा था ,
लोग तिनकों के समान
जलधारा में बह रहे थे ,
घर ,दुकान ,मकान
मंदिर ,शिवालय सब
खंड -खंड हो ,
रेत के घरोंदों से
बिखर रहे थे ,
पहाड़ ,चट्टानें ,मिटटी
सब ,नदी बनकर
बह रहे थे ,
भयंकर हुंकार भरती नदियाँ
बिकराल राक्षसी सी
चीत्कार रहीं थीं
बचे -खुचे इन्सान
इधर -उधर भाग रहे थे ,
बच्चे ,बूढ़े ,नौजवान
औरत ,बेटियां सब
जहाँ -तहां बिलख
रहे थे ,
कोई तो ,मसीहा आये
उन्हें बचाए ,
ईश्वर !!भी मौन ,स्तब्ध निरुत्तर सा
निराकार होकर
भुमिदोज हो गया था ,
मानो ,कहना चाहता हो
देखो !!मैं ,भी बेबस हूँ ,
भयानक वीरानी
वादियों में ,
पसर रही थी ,
कहीं ,दरिया धरती का
सीना चीरकर,उदंडता से
बह रहा था ,
कहीं ,धरती स्वयं
अपने भीतर समां रही थी ,
कहीं ,प्रस्तर खंड
बेकाबू होकर बेतरतीब
खंड -खंड हो
शिव पिंड बन रहे थे ,
मानव ,इस प्रचंड प्रलय के
आगोश में विलयित हो
पुन:जीवन पाने को
ललाइत हो रहे थे ,
पशु -पक्षी ,जानवर
कीड़े ,मकोड़े सब
धारा के प्रवाह में
कण -कण बंटकर
धूल बन रहे थे ,
मैं ,तो ,यूँ ही
कल्पना कर बैठी थी
जब ,साकार हुई तो ,
मूंक-बधिर सी
स्पंदन हीन सी
ठगी की ठगी
रह गई .
रेनू शर्मा २८ .६.२०१३
कई बार
कल्पना की थी
यदि ,
जल प्रलय हुई
तो , क्या मंजर होगा ?
एक , अतिकल्पनाशीलता
हर बार मुझे ,
प्रलय लीलाओं की ओर
धकेलती थी ,
जब ,तस्वीर बनती थी
तब ,
रूह तक कांप जाती थी
लगता था ,कि
नहीं ,ऐसा नहीं हो सकता ,
लेकिन ,
जब ,उत्तराखंड की
त्रासदी का बीभत्स दृश्य देखा
तब ,
अचम्भित हो गई
जैसे ,सबकुछ
दोहराया जा रहा था ,
लोग तिनकों के समान
जलधारा में बह रहे थे ,
घर ,दुकान ,मकान
मंदिर ,शिवालय सब
खंड -खंड हो ,
रेत के घरोंदों से
बिखर रहे थे ,
पहाड़ ,चट्टानें ,मिटटी
सब ,नदी बनकर
बह रहे थे ,
भयंकर हुंकार भरती नदियाँ
बिकराल राक्षसी सी
चीत्कार रहीं थीं
बचे -खुचे इन्सान
इधर -उधर भाग रहे थे ,
बच्चे ,बूढ़े ,नौजवान
औरत ,बेटियां सब
जहाँ -तहां बिलख
रहे थे ,
कोई तो ,मसीहा आये
उन्हें बचाए ,
ईश्वर !!भी मौन ,स्तब्ध निरुत्तर सा
निराकार होकर
भुमिदोज हो गया था ,
मानो ,कहना चाहता हो
देखो !!मैं ,भी बेबस हूँ ,
भयानक वीरानी
वादियों में ,
पसर रही थी ,
कहीं ,दरिया धरती का
सीना चीरकर,उदंडता से
बह रहा था ,
कहीं ,धरती स्वयं
अपने भीतर समां रही थी ,
कहीं ,प्रस्तर खंड
बेकाबू होकर बेतरतीब
खंड -खंड हो
शिव पिंड बन रहे थे ,
मानव ,इस प्रचंड प्रलय के
आगोश में विलयित हो
पुन:जीवन पाने को
ललाइत हो रहे थे ,
पशु -पक्षी ,जानवर
कीड़े ,मकोड़े सब
धारा के प्रवाह में
कण -कण बंटकर
धूल बन रहे थे ,
मैं ,तो ,यूँ ही
कल्पना कर बैठी थी
जब ,साकार हुई तो ,
मूंक-बधिर सी
स्पंदन हीन सी
ठगी की ठगी
रह गई .
रेनू शर्मा २८ .६.२०१३
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