झीनी सी झोंपडी के बाहर
फटे बांस के सहारे ,
बेसहारा खड़ा
सरजू का ठेला ,
साप्ताहिक मंडी के
उठे बाजार सा
ढल गया है ।
फटी जेब में पड़े
दो पचास के नोट ,
सरजू को धकेल रहे हैं ,
मंडी के फूटकर बाड़े की ओर,
तीन घंटे की झिकझिक
और
तीन पचास के नोट की भाजी ।
थोड़े उधर की पिटारी ,
थोड़े हौसले की गठरी लिए ,
सरजू ,
गली , मौहल्ले ,घर , आँगन
बेच रहा है सब्जी ।
दो रहे के मोड़ पर
सिपाही से ,
आवाज टकरा गई ,
क्यों बे ,
कैसे दी है ?
साब , मंडी भाव से ही है ।
चल , एक सेर गोभी
आधा सेर आलू ,
मिर्च , अदरक सब डाल दे ,
कितना हुआ ?
साब , घबराया सरजू
गणना भूल गया ,
साब , बीस रूपया
क्या ??
पन्द्रह रख ,
और ,
साब , टूटी स्कूटी पर
निकल गए ,
सरकारी लट्टू की चमक में
सरजू चौंक गया ,
साब का बटुआ !!!
पचासों पचास के
नोटों से भरा था ,
उनके एक दिन की रोटी ,
सरजू के ,
दो जून की रोटी थी,
फटे खींसे में
बटुआ फंसा कर
सरजू ,
घर लौट रहा था ,
रोटी का आवागमन
कितना , यथार्थ लग रहा था ।
रेनू .....
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