Monday, March 16, 2009

ब्रज की हवाएं

ब्रज की हवाओं से
कुञ्ज गलियों का ,
पता पूछती
मेरी निगाहें ,
थक सी रहीं हैं ।
आम के बौर ,
नीम के फूल की सुगंध ,
सरसराकर
मेरा मस्तिस्क ,
झकझोर रहे हैं ।
हौले से पुकार कर
लुका -छुपी खेल रहे हैं ।
महुआ गदरा रहा है ,
टेसू के फूल ,
बिखर रहे हैं बगिया में।
मेरी रूह , लौट रही है
उपवन में ,
धीरे से कोई धप्पी देकर
भाग रहा है ।
पलाश जल रहा है
होली की आग सा ।
नन्हीं कलियाँ हंस रही है
बाटिका में ।
मैं , खिंच रहा हूँ , तेजी से
कुञ्ज गलियों मैं ।
मोहपाश के रंग मैं बांधकर
मुझे , डुबो रहा है कोई
ब्रज की हवाएं दूर खडीं
चिडा रहीं हैं मुझे ।
रेनू ......

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