कितनी रातें जागकर
तुम्हें ,
थपथपाया था ,
अनगिनत पलों में
तुम्हें ,
सीने से लगाया था ,
बार -बार
ढाल बनकर
आ गई
तुम्हारे सामने
जब ,
पिता ने फटकारा है ,
कई बार ,
मन्दिर के आले से
पचास का नोट
निकल कर थमाया है ,
कितनी बार ,
रात के अंधेरे में
खिड़की से झांकती
तुम्हारी परछाईं देखकर
कुण्डी खोली है ,
अनेकों बार ,
पिता की खून
छलछलाती
आंखों के ताप से
तुम्हें , बचाया है ,
उलाहना नही देती ,
सुनहरे पलों को
जी रही हूँ ,
जब तुम ,
बोलते हो -
माँ !! ऐसा कैसे चलेगा ?
माँ !! तुम असहनीय हो ,
माँ !! तुम हमारे साथ नही रह सकती ,
माँ !! तुम्हारा क्या करें हम ?
माँ !! तुम मरती क्यों नही ?
तब तब , मैं ,
आँगन में दौड़ते
गिरते , उठाते
तुम्हारे क़दमों को देखकर
खुश होती हूँ ,
माँ , बोलते
तोतले शब्दों में
अमृत पान करती हूँ ,
भागकर आते हुए
मेरा आँचल
खींचकर
मचलने पर ,
मैं , मुग्ध होती हूँ ,
क्योंकि , मैं ,
तुम्हारी
माँ , हूँ ।
रेनू ....
क्योंकि , मैं ,
ReplyDeleteतुम्हारी
माँ , हूँ ।
मातृत्व बिखेरती रचना. बहुत सुन्दर