Tuesday, September 15, 2009

आपाधापी


जीवन की आपाधापी में

कोई ,

द्रुत गति से

रास्ते बना रहा है ,

कोई ,

व्यापार , राजनीति और

संसार के झंझट में

उलझा है ,

कोई ,

पारिवारिक दांवपेंच के

जाल में

स्वयं ही फंस रहा है ।

कोई ,

मदिरालय की सीढियां

रोज चढ़कर भी

नीचे ही गिर रहा है ,

कोई ,

समाज सुधारक बन

वक्त गुजार रहा है ,

ख़ुद सुधर रहा है

समाज ,

सुधारक बिगड़ रहा है ।

कहीं ,

ईंट -गारे के

जंगल उगाए जा रहे हैं ,

पंछियों के आशियाँ

उजाडे जा रहे हैं ,

कहीं ,

धुआं छोड़ती मोटरें

मौत बाँट रही हैं ,

प्यासे शावक

बादल निहार रहे हैं ,

कहीं ,

शासक मधु चषक

गटक रहे हैं ,

बाहर

निराहार सेविका

मजदूरी मांग रही है ,

ये कैसी ,

बिडम्बना है?

कैसा तमाशा है ?

जिन पर ,

भरोसा कर कहते हैं ,

उनसा बनो ,

कमबख्त वे ही ,

यहाँ ,

विश्वास लुटा रहे हैं ,

कहाँ ?

देखें , जीवन का उजाला ,

इस ,

आपाधापी में

सब ,

भागते ही जा रहे हैं ।

रेनू ...

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