जीवन की आपाधापी में
कोई ,
द्रुत गति से
रास्ते बना रहा है ,
कोई ,
व्यापार , राजनीति और
संसार के झंझट में
उलझा है ,
कोई ,
पारिवारिक दांवपेंच के
जाल में
स्वयं ही फंस रहा है ।
कोई ,
मदिरालय की सीढियां
रोज चढ़कर भी
नीचे ही गिर रहा है ,
कोई ,
समाज सुधारक बन
वक्त गुजार रहा है ,
ख़ुद सुधर रहा है
समाज ,
सुधारक बिगड़ रहा है ।
कहीं ,
ईंट -गारे के
जंगल उगाए जा रहे हैं ,
पंछियों के आशियाँ
उजाडे जा रहे हैं ,
कहीं ,
धुआं छोड़ती मोटरें
मौत बाँट रही हैं ,
प्यासे शावक
बादल निहार रहे हैं ,
कहीं ,
शासक मधु चषक
गटक रहे हैं ,
बाहर
निराहार सेविका
मजदूरी मांग रही है ,
ये कैसी ,
बिडम्बना है?
कैसा तमाशा है ?
जिन पर ,
भरोसा कर कहते हैं ,
उनसा बनो ,
कमबख्त वे ही ,
यहाँ ,
विश्वास लुटा रहे हैं ,
कहाँ ?
देखें , जीवन का उजाला ,
इस ,
आपाधापी में
सब ,
भागते ही जा रहे हैं ।
रेनू ...
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