Tuesday, July 6, 2010

अपलक

घर की 
दीवारों को देखकर ,
बातें कर रही हूँ ,
वही ,
पुरानी पेंटिंग , केनवास 
और कलेंडर टंगे हैं ,
सब जीवंत लगते हैं
कभी ,
पेंटिंग पास बुलाती है 
कभी ,
कलेंडर उड़ने लगता है ,
कभी ,
केनवास पर 
खिलते फूल 
खुशबू बिखरते हैं ,
दिल में, घुमड़ते 
बादलों से भाव 
कभी ,
लहू से ,प्रवाहित होते हैं 
कभी ,
जीवन के , तूफ़ान में 
सांसें सिहरती हैं ,
कभी ,
एक तारा सा 
बिखरता है आस -पास 
और मैं ,
दीवारों पर 
नज़रें गढ़ाए 
फिर से ,
देखती हूँ , अपलक |
रेनू शर्मा ...

Monday, June 28, 2010

नशा मुक्ति दिवस

टूटे टपरे के 
बगल में ,
खोली के भीतर 
देशी शराब की 
बंद दुकान के 
सामने ,
राम भरोसे !!
हिचकोले ले रहा था ,
दूर से आते 
सिपाही ने 
उसे ताक लिया ,
बोला - -
क्यों बे !!
आज भी , लगा ली 
अरे !!
क्या बात करते हो ?
साब !!
आज तो ,
देशी बंद है ,
नशा मुक्ति दिवस है .
मुझे पता है  , साब !! ,
फिर , साले !!
क्यों हिल रहा है ?
कुछ नहीं साब !!
देख रहा था 
बिना पीये , कैसा लगता है 
क्यों रे !!!
मुझे , उल्लू बनता है ?
चल , जेब ढीली कर 
पहले से ढीली है जी !!
अभी बड़े साब के घर 
ड्यूटी पर था ,
बोले --
राम भरोसे !! जरा ,
सोडा लेकर आ ,
मैं , सोच रहा था 
आज तो मुक्ति दिवस है ,
साब !! झुग्गी मैं भाषण भी 
दिए थे ,
पर , हो सकता है 
साब !! 
नशा मुक्ति दिवस 
सेलिब्रेट कर रहे होंगे ?
क्या बकता है - - ....
रेनू शर्मा .....

Sunday, June 20, 2010

परम पिता

हर -पल 
पिता से मिलन की चाहत 
हमें ,
अनवरत 
दौड़ाती है ,
जन्म के पल 
से ही 
प्राणी !!
समय चक्र पर 
आरूढ़ हो 
पंच्तात्वा पृथ्वी की 
गोद में 
कभी ,
हँसता , खेलता , भागता 
कभी ,
समाधिस्थ हो 
पंचतत्व को जानता हुआ 
उस ,
परमपिता के 
साए से लिपटने की 
लालसा लिए चलता ही 
जाता है ,
कालचक्र का स्वामी !! 
महाकाल ही ,
हमारा पिता है ,
पिता के 
सर्वांश में 
अपने ,
सारांश को 
घोलने के लिए ही ,
जीवन पथ ,
पिता पथ पर ,
अग्रसित है . 
रेनू शर्मा ....

Tuesday, June 15, 2010

शमशान होना

शमशान का 
वीराना , भयानकता और 
अटल सत्य 
अब ,
बदल सा गया है ,
बाग़ -बगीचे 
हरियाली , मंदिर और 
नदी का किनारा ,
पिकनिक स्थल सा 
लगता है ,
कंधे पर उठाया 
तन का बोझ 
मन पर भारी सा 
पड़ता है ,
धूं धूं कर 
सुलगती 
चिता को देखकर 
अपने अस्तित्व का 
आभास होता है ,
आस -पास 
भटकते कुत्तों से 
कभी न मिलने की 
प्रतिज्ञा होती है ,
पल भर का 
सन्नाटा 
दस कदम दूर जाकर 
टूट जाता है 
हर कस्बे के 
छोर पर ,
टीन की चादर के नीचे 
राख के ढेर में 
श्वान क्रीडा करते हैं ,
वहीँ ,
बीस कदम दूर 
देशी शराब की दुकान पर 
जीवन के सत्य से 
नाता तोड़कर 
इंसान 
शमशान होने का 
प्रयास करता है . 

Wednesday, January 6, 2010

बेटी की विदाई

लाल साड़ी में
लिपटी ,
गहनों के
बोझ से दबी ,
मांग में सुर्ख
सिन्दूर डाले ,
चूड़ियों का
झंझावात समेटे ,
बिछिया और पायल को
चुप सा कराती ,
सकुचाती , लजाती
वो ,
मां के सीने से
चिपक गई ,
पिता जाने कहाँ ,
छुपा कर ,
आंसुओं का गुबार
निकाल रहे थे ,
छोटा भाई
छोटा था , इसलिए
भाई -भाई कहकर
उस रिश्ते के
तार को खींचती
चली गई .
दूर ---गली पार तक
चीखती रही ,
सीने से हूक
उठ रही थी ,
लग रहा था ,
अब , यही विदाई है .
वो , बेटी !!
मानो , भीड़ भरे
मेले में ,
किसी अपने का
हाथ छोड़कर ,
गुम होने जा रही हो ,
एक , बिछोह
तड़फ , वेदना , पीड़ा
सारी संवेदनाएं ,
तिरोहित सी हो रहीं थीं ,
यह परिवर्तन ,
अथाह क्षोभ भरा था ,
वो ,
खुद में ही
सिमट रही थी ,
रिश्तों का हुज्जूम
नए रिश्तों में ,
बंट रहा था ,
बेटी !!
तमाशबीन सी
सब गुण रही थी ,
उस छुअन को भी
जी रही थी , जो
माँ , ने कपोल पर दी थी ,
आँखें भरी हुईं थीं ,
सब कुछ ,
लुटा हुआ सा लग रहा था ,
लाल साड़ी में लिपटी ,
बेटी !!
बेघर होकर ,
नए घर में
गृहस्थ बसाने जो
जा रही थी ,
फिर से उजड़ने के लिए .
रेनू ....