वीराना , भयानकता और
अटल सत्य
अब ,
बदल सा गया है ,
बाग़ -बगीचे
हरियाली , मंदिर और
नदी का किनारा ,
पिकनिक स्थल सा
लगता है ,
कंधे पर उठाया
तन का बोझ
मन पर भारी सा
पड़ता है ,
धूं धूं कर
सुलगती
चिता को देखकर
अपने अस्तित्व का
आभास होता है ,
आस -पास
भटकते कुत्तों से
कभी न मिलने की
प्रतिज्ञा होती है ,
पल भर का
सन्नाटा
दस कदम दूर जाकर
टूट जाता है
हर कस्बे के
छोर पर ,
टीन की चादर के नीचे
राख के ढेर में
श्वान क्रीडा करते हैं ,
वहीँ ,
बीस कदम दूर
देशी शराब की दुकान पर
जीवन के सत्य से
नाता तोड़कर
इंसान
शमशान होने का
प्रयास करता है .
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