हर -पल
पिता से मिलन की चाहत
हमें ,
अनवरत
दौड़ाती है ,
जन्म के पल
से ही
प्राणी !!
समय चक्र पर
आरूढ़ हो
पंच्तात्वा पृथ्वी की
गोद में
कभी ,
हँसता , खेलता , भागता
कभी ,
समाधिस्थ हो
पंचतत्व को जानता हुआ
उस ,
परमपिता के
साए से लिपटने की
लालसा लिए चलता ही
जाता है ,
कालचक्र का स्वामी !!
महाकाल ही ,
हमारा पिता है ,
पिता के
सर्वांश में
अपने ,
सारांश को
घोलने के लिए ही ,
जीवन पथ ,
पिता पथ पर ,
अग्रसित है .
रेनू शर्मा ....
सामयिक और सुन्दर रचना. आभार.
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