Friday, March 9, 2012

अंशांश

कुछ भी ,
हलक से नहीं
उतरता ,
माथे की नसें
खींचती चली जातीं हैं,
आँखें पल -पल
विस्फारित होती
जातीं हैं ,
सांसें , धौकनी बन जातीं हैं ,
जब ,
प्रेतात्मा सी ,
उसकी जिद ,
कान के  परदे ,
फाड़ रही होती है ,
वो ,
कैसे ,कह पाता है ,
सब , कुछ
लगता है ,
जैसे , हम
दण्डित किये जा रहे हैं ,
सजा ,
इतनी बीभत्स है
कि,
जब , शब्दों की तोपें
चलती हैं ,
तब , न , चाहकर भी
निःशब्द होते हैं ,
घाव सीने पर होता है ,
आह , भी नहीं
निकल पाती,
कई बार ,
प्राणान्तक पीड़ा से
निस्तेज कर चूका है ,
ऐसा , क्या पाप है ?
जो पीछा नहीं छोड़ता ?
पल -पल हमारी
धडकनों का हिसाब
मांग रहा है ,
वो ,
कोई और नहीं ,
हमारे ही ख्वावों का
अंशांश है .


रेनू शर्मा

मैं ,ही थी .

एक समय था ,
जब ,
धडकनें मेरे होने का ,
अहसास करतीं थीं ,
मेरी सांसें ,
जैसे , तुम्हारे भीतर ही 
उतरती थीं ,
बस ,
प्यार के बगीचे में 
तुम , भंवरे बन ,
उड़ते थे ,
मैं , तितली बन 
कहीं दूर ...
कलियों पर 
मकरंद बटोरती थी ,
तेज हवा का 
झोंका भी ,
दीवानगी को 
तोड़ नहीं पाता था ,
अब , तुम 
अपनी ही धुन मे 
भुनभुनाते ही 
रहते हो ,
अध् खिली कली के 
भीतर ही ,
समाने काप्रयास करते हो ,
रस पान का 
सलीका अब , 
तुम , निभा नहीं पाते,
नाहक , पथ भ्रष्ट होते हो ,
देखो !! 
सामने सूरज उग रहा है ,
रौशनी फ़ैल रही है ,
तुम्हें , याद होगा ,
तुम , 
फूल के भीतर 
छुपे हुए भी 
मेरी ही सुगंध में,
मदहोश रहते थे ,
और ,
प्रातः की 
सुरभित उषा में ,
मैं, ही तुम्हें ,
उड़ा ले जाती थी ,
वर्ना ,
अब , तक 
सूख गए होते ,
किसी फूल के 
दामन में .

रेनू शर्मा 

 

सब बदल गया

सब , बदल गया है
अब , न
आँगन के झज्जे पर
गोरैया घोंसला
बनती है ,
और न ,
बिना आवाज के
बिल्ली दूध
पी पाती है,
अब , न
दरवाजे  पर
गाय रंभाती है ,
और , न
अरगनी पर बैठ कर
कौआ,
कांव -कांव  करता है ,
अब , न
कूंए की मुंडेर पर
चूड़ियाँ खनकती हैं ,
और , न
नीम की डाली पर
सावन के झूले
पड़ते हैं ,
अब , न
बिटिया पीहर
आती है ,
और , न
छत की खुली हवा मैं ,
पतंगें उड़तीं हैं ,
अब , न
चबूतरे पर बैठक जुडती है ,
और ,न
हंसी के ठहाकों से ,
घर चहकता है ,
अब , तो
सब , बदल सा गया है .


रेनू शर्मा