एक समय था ,
जब ,
धडकनें मेरे होने का ,
अहसास करतीं थीं ,
मेरी सांसें ,
जैसे , तुम्हारे भीतर ही
उतरती थीं ,
बस ,
प्यार के बगीचे में
तुम , भंवरे बन ,
उड़ते थे ,
मैं , तितली बन
कहीं दूर ...
कलियों पर
मकरंद बटोरती थी ,
तेज हवा का
झोंका भी ,
दीवानगी को
तोड़ नहीं पाता था ,
अब , तुम
अपनी ही धुन मे
भुनभुनाते ही
रहते हो ,
अध् खिली कली के
भीतर ही ,
समाने काप्रयास करते हो ,
रस पान का
सलीका अब ,
तुम , निभा नहीं पाते,
नाहक , पथ भ्रष्ट होते हो ,
देखो !!
सामने सूरज उग रहा है ,
रौशनी फ़ैल रही है ,
तुम्हें , याद होगा ,
तुम ,
फूल के भीतर
छुपे हुए भी
मेरी ही सुगंध में,
मदहोश रहते थे ,
और ,
प्रातः की
सुरभित उषा में ,
मैं, ही तुम्हें ,
उड़ा ले जाती थी ,
वर्ना ,
अब , तक
सूख गए होते ,
किसी फूल के
दामन में .
रेनू शर्मा
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