Friday, March 9, 2012

मैं ,ही थी .

एक समय था ,
जब ,
धडकनें मेरे होने का ,
अहसास करतीं थीं ,
मेरी सांसें ,
जैसे , तुम्हारे भीतर ही 
उतरती थीं ,
बस ,
प्यार के बगीचे में 
तुम , भंवरे बन ,
उड़ते थे ,
मैं , तितली बन 
कहीं दूर ...
कलियों पर 
मकरंद बटोरती थी ,
तेज हवा का 
झोंका भी ,
दीवानगी को 
तोड़ नहीं पाता था ,
अब , तुम 
अपनी ही धुन मे 
भुनभुनाते ही 
रहते हो ,
अध् खिली कली के 
भीतर ही ,
समाने काप्रयास करते हो ,
रस पान का 
सलीका अब , 
तुम , निभा नहीं पाते,
नाहक , पथ भ्रष्ट होते हो ,
देखो !! 
सामने सूरज उग रहा है ,
रौशनी फ़ैल रही है ,
तुम्हें , याद होगा ,
तुम , 
फूल के भीतर 
छुपे हुए भी 
मेरी ही सुगंध में,
मदहोश रहते थे ,
और ,
प्रातः की 
सुरभित उषा में ,
मैं, ही तुम्हें ,
उड़ा ले जाती थी ,
वर्ना ,
अब , तक 
सूख गए होते ,
किसी फूल के 
दामन में .

रेनू शर्मा 

 

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