वय का बदलाव है
या विक्रति ,
हर रोज
तीक्ष्ण दृष्टि से
देख लेता है ,
हौले से
अपशब्दों को
दोहरा लेता है ,
फ़िर
चर्या में मगन , भी
उसकी छटपटाहट
यहाँ -वहां
दीख पड़ती है
कभी ,
नयन कोर
लाल होते हैं ,
कभी ,
मुठ्ठियाँ भिंच जाती हैं ,
कभी , कागज पर
कलम पटक देता है ,
अल्पाहार ले
निकल जाता है ,
अनमनी सी
मंजिल की ओर ,
जहाँ जाने से
उसके कदम
सालों पहले
रुक चुके थे ।
कोई विकल्प नहीं
कोई रास्ता नहीं ।
शाम होते ही
घर लौट पड़ता है ,
वक्त के अटके
रहने का भ्रम
उसे , उकसाता है ।
कभी ,
बडबडाता है
कभी ,
खींजता है ,
कभी ,
रीतता है , कभी
भरता है ।
शाम सरकते ही
गटकने लगता है
मद को पानी के साथ
या ,
भ्रम को सच के साथ ।
फ़िर ,
घुर्राता है
दहाड़ता है ,
दनदनाता है ,
चीखता -चिल्लाता है ,
अपनी विक्रति को
रूप देता है ।
कल्पनाओं के
आकार गड़ता है ।
नारी के वजूद को
नकारता है ,
प्रकृति की दुश्वारियों से
तृप्त ,
नारी पर
आक्षेप गड़ता है ।
सामाजिक दायरों से
मुक्ति चाहता है ,
भोग -विलास की
उन्मुक्तता चाहता है ,
उसी से ।
जिसे ,
पल भर पहले ,
सींचा था उलाहनों ओर
धिक्कारों से ।
उसकी ,
मौजूदगी चाहिए ,
अपने विकार वमन के लिए ।
हिंस्त्र भाव के
उदगार के लिए ।
रोज -रोज शमशान से
लौट कर भी
क्यों ?
अस्तित्व समझ नही आता ?
हम क्यों ?
अपने ही जाल की
गिरफ्त में हैं ।
रेनू शर्मा .....