Monday, May 18, 2009

जाल


वय का बदलाव है

या विक्रति ,

हर रोज

तीक्ष्ण दृष्टि से

देख लेता है ,

हौले से

अपशब्दों को

दोहरा लेता है ,

फ़िर

चर्या में मगन , भी

उसकी छटपटाहट

यहाँ -वहां

दीख पड़ती है

कभी ,

नयन कोर

लाल होते हैं ,

कभी ,

मुठ्ठियाँ भिंच जाती हैं ,

कभी , कागज पर

कलम पटक देता है ,

अल्पाहार ले

निकल जाता है ,

अनमनी सी

मंजिल की ओर ,

जहाँ जाने से

उसके कदम

सालों पहले

रुक चुके थे ।

कोई विकल्प नहीं

कोई रास्ता नहीं ।

शाम होते ही

घर लौट पड़ता है ,

वक्त के अटके

रहने का भ्रम

उसे , उकसाता है ।

कभी ,

बडबडाता है

कभी ,

खींजता है ,

कभी ,

रीतता है , कभी

भरता है ।

शाम सरकते ही

गटकने लगता है

मद को पानी के साथ

या ,

भ्रम को सच के साथ ।

फ़िर ,

घुर्राता है

दहाड़ता है ,

दनदनाता है ,

चीखता -चिल्लाता है ,

अपनी विक्रति को

रूप देता है ।

कल्पनाओं के

आकार गड़ता है ।

नारी के वजूद को

नकारता है ,

प्रकृति की दुश्वारियों से

तृप्त ,

नारी पर

आक्षेप गड़ता है ।

सामाजिक दायरों से

मुक्ति चाहता है ,

भोग -विलास की

उन्मुक्तता चाहता है ,

उसी से ।

जिसे ,

पल भर पहले ,

सींचा था उलाहनों ओर

धिक्कारों से ।

उसकी ,

मौजूदगी चाहिए ,

अपने विकार वमन के लिए ।

हिंस्त्र भाव के

उदगार के लिए ।

रोज -रोज शमशान से

लौट कर भी

क्यों ?

अस्तित्व समझ नही आता ?

हम क्यों ?

अपने ही जाल की

गिरफ्त में हैं ।

रेनू शर्मा .....

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