कुछ लम्हे पूर्व
मेरी सांसें
जिन्दा थीं ,
मेरा वजूद
स्वीकार्य था ,
माटी में
सिमटने को
बेकरार मैं ,
डगमगा रही थी ,
सब अपने
लापरवाह थे
यकायक एक ,
तूफ़ान सा
फ़ैल गया ,
मेरा पहलु
मुझसे ही
बिछुड़ गया ,
बेसुध हो
चली गई
अनंत में
मेरे अपने
भयभीत हो
दूर हो गए ,
जो सिमट रहे थे
मेरे भीतर
वे , छिटक गए ।
माटी के ढेर सा
मृत शरीर
अस्पर्श्य सा ,
किनारे आ गया ।
मैं ,
तनहा , उन्हें देख रही थी ।
क्यों नही समझ पाई
इस , दूरी को ।
आज ,जब ,जा रही हूँ ।
तब ,
समझ पा रही हूँ
इस ,
माया जाल को ।
माटी सी, तो ,
पहले भी थी
अब ,
राख बन गई हूँ ।
रेनू शर्मा .....
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