Monday, September 28, 2009

देवी पूजन

फूल वाली
फ्राक पहने ,
सुबह से
नहा -धोकर ,
बालों में
क्लिप लगाये ,
नंगे पैर ,
एक घर से
दूसरे घर ,
खींची जाती थी ,
राजो !! आजा ,
बुलाया जाता था ,
माथे पर लाल
टीका लगाये ,
पैरों पर महावर,
हाथ पर
एक टका रखकर
कन्या ,
पूज दी जाती थी ।
आँगन में
दरी बिछाकर ,
थाली में
पूडी , हलुआ
खीर , चना सब ,
देवी को
चढ़ता था ।
लंबा घूँघट डाले
चाची,
ढोक लगाती थी ,
बाहर
चबूतरे पर बैठा
काका ,
दूर से दौड़ता था ,
जय ,हो मैया की ,
आज ,
वही काका -काकी
गर्भ में ठहरी ,
नातिन को
मरवाना चाहते हैं ,
कैसी , देवी ?
कैसा पूजन था
अभी तक ?
रेनू ...

Wednesday, September 16, 2009

आखिरी शाम का दिया


यारों का संदेश

मोबाईल पर

चस्पा होता है ,

कभी ,

फोन घनघनाता है ,

कभी ,

एकांत में

मंत्रणा हो लेती है ,

रात की खुमारी

अभी , जाती भी नही

कि,

सुबह का निमंत्रण

बार -बार

मुंह में रस

घोलता है ,

कभी ,

कला कुत्ता ,

कभी,

लाल रात

कभी ,

जिन ,कभी ,

हस्ताक्षर

बिसलरी जल के साथ

विलीन होकर ,

निमिष भर में ,

हलक के पार

चली जाती है ,

कहकहे , मस्ती ,फब्तियां

दिल्लगी ,राजनीति और कभी

मदनीति ,

सबका कॉकटेल

परोसा जाता है ,

आजादी का नशा

भुला देता है

घर -परिवार -बच्चे ,

अब ,

किसे भाता है

मुसीबतों का स्मरण

मद ,चषक के

चषक पर चषक

जब ,

उदराग्रस्त होते हैं ,

तब ,

रजनोत्संग के लिए

लालायित ,

प्रकम्पित भंवरे सा

प्रेम का भरम जाल

फैलाता ,

भिनभिनाता है ,

कभी ,

आंखों को लाल

करता है ,

कभी ,

पंख फड फडाता है ,

कभी ,

कलिका की बेरुखी पर

विष वमन कर

वहीं का वहीं ,

ढेर हो जाता है ,

इस ...

अगन की तपन

जला रही है ,

अनेकों भावनाओं ,

विचारों और परिवारों को ,

चषक का कषाय पन

दिलों को ,

छील रहा है ,

किसी अपराधी की

देह सा , जो

निरपराध है ,

कब तक,

अदृश्य कर्म

दृश्य दंड से ,

प्रकट होते रहेंगे ?

जीवन की

धरोहर सा , वक्त

सिसकते कट गया ,

अब ,

आखिरी शाम को

स्नेह का दिया

जलाकर तो देखो !!!

एक ,

पतंगी आ ही मरेगी ।

रेनू ...

पार्क का जादू


पास के पार्क मैं

आती है ,

रोज

डबडबाती आंखों से

इधर -उधर

ढूंढती है

कुछ , डरी सहमी सी

झूले के पास जाकर

ख़ुद में ही सिमटकर

खड़ी हो जाती है ,

इन्तजार करती है

शायद ,

उसकी बारी आएगी

पर ,

लूट -झपट

यहाँ भी , जरी है

धीरे से ,

वो ,खिसकती है

फिसलपट्टी पर

ऊपर चढ़ कर भी

नीचे धकेली जाती है ,

रेत में धंसे

पैर देखकर

खुश होती है ,

उठाकर गेट तक

जाती है ,

कल फ़िर ,

आने के लिए ।

रेनू ...

खामोशी


खामोश हैं

साँसें ,

धड़कनें खामोश हैं ,

हौले -हौले

भाव -विचार -संवेदना भी

खामोश हो रहे हैं ,

राह के बीच मैं

बना , रिश्ता

जो ,

किले की दीवार सा

दृढ़ हो चला था ,

अब ,

रेत के ढेर सा ,

बिखर रहा है ,

दूर -दूर तक

खामोशी ही

आवाज लगाती है ,

खामोशी ही

साथ रह गई है ।

रेनू ...

Tuesday, September 15, 2009

आपाधापी


जीवन की आपाधापी में

कोई ,

द्रुत गति से

रास्ते बना रहा है ,

कोई ,

व्यापार , राजनीति और

संसार के झंझट में

उलझा है ,

कोई ,

पारिवारिक दांवपेंच के

जाल में

स्वयं ही फंस रहा है ।

कोई ,

मदिरालय की सीढियां

रोज चढ़कर भी

नीचे ही गिर रहा है ,

कोई ,

समाज सुधारक बन

वक्त गुजार रहा है ,

ख़ुद सुधर रहा है

समाज ,

सुधारक बिगड़ रहा है ।

कहीं ,

ईंट -गारे के

जंगल उगाए जा रहे हैं ,

पंछियों के आशियाँ

उजाडे जा रहे हैं ,

कहीं ,

धुआं छोड़ती मोटरें

मौत बाँट रही हैं ,

प्यासे शावक

बादल निहार रहे हैं ,

कहीं ,

शासक मधु चषक

गटक रहे हैं ,

बाहर

निराहार सेविका

मजदूरी मांग रही है ,

ये कैसी ,

बिडम्बना है?

कैसा तमाशा है ?

जिन पर ,

भरोसा कर कहते हैं ,

उनसा बनो ,

कमबख्त वे ही ,

यहाँ ,

विश्वास लुटा रहे हैं ,

कहाँ ?

देखें , जीवन का उजाला ,

इस ,

आपाधापी में

सब ,

भागते ही जा रहे हैं ।

रेनू ...