फूल वाली
फ्राक पहने ,
सुबह से
नहा -धोकर ,
बालों में
क्लिप लगाये ,
नंगे पैर ,
एक घर से
दूसरे घर ,
खींची जाती थी ,
राजो !! आजा ,
बुलाया जाता था ,
माथे पर लाल
टीका लगाये ,
पैरों पर महावर,
हाथ पर
एक टका रखकर
कन्या ,
पूज दी जाती थी ।
आँगन में
दरी बिछाकर ,
थाली में
पूडी , हलुआ
खीर , चना सब ,
देवी को
चढ़ता था ।
लंबा घूँघट डाले
चाची,
ढोक लगाती थी ,
बाहर
चबूतरे पर बैठा
काका ,
दूर से दौड़ता था ,
जय ,हो मैया की ,
आज ,
वही काका -काकी
गर्भ में ठहरी ,
नातिन को
मरवाना चाहते हैं ,
कैसी , देवी ?
कैसा पूजन था
अभी तक ?
रेनू ...
यारों का संदेश
मोबाईल पर
चस्पा होता है ,
कभी ,
फोन घनघनाता है ,
कभी ,
एकांत में
मंत्रणा हो लेती है ,
रात की खुमारी
अभी , जाती भी नही
कि,
सुबह का निमंत्रण
बार -बार
मुंह में रस
घोलता है ,
कभी ,
कला कुत्ता ,
कभी,
लाल रात
कभी ,
जिन ,कभी ,
हस्ताक्षर
बिसलरी जल के साथ
विलीन होकर ,
निमिष भर में ,
हलक के पार
चली जाती है ,
कहकहे , मस्ती ,फब्तियां
दिल्लगी ,राजनीति और कभी
मदनीति ,
सबका कॉकटेल
परोसा जाता है ,
आजादी का नशा
भुला देता है
घर -परिवार -बच्चे ,
अब ,
किसे भाता है
मुसीबतों का स्मरण
मद ,चषक के
चषक पर चषक
जब ,
उदराग्रस्त होते हैं ,
तब ,
रजनोत्संग के लिए
लालायित ,
प्रकम्पित भंवरे सा
प्रेम का भरम जाल
फैलाता ,
भिनभिनाता है ,
कभी ,
आंखों को लाल
करता है ,
कभी ,
पंख फड फडाता है ,
कभी ,
कलिका की बेरुखी पर
विष वमन कर
वहीं का वहीं ,
ढेर हो जाता है ,
इस ...
अगन की तपन
जला रही है ,
अनेकों भावनाओं ,
विचारों और परिवारों को ,
चषक का कषाय पन
दिलों को ,
छील रहा है ,
किसी अपराधी की
देह सा , जो
निरपराध है ,
कब तक,
अदृश्य कर्म
दृश्य दंड से ,
प्रकट होते रहेंगे ?
जीवन की
धरोहर सा , वक्त
सिसकते कट गया ,
अब ,
आखिरी शाम को
स्नेह का दिया
जलाकर तो देखो !!!
एक ,
पतंगी आ ही मरेगी ।
रेनू ...
पास के पार्क मैं
आती है ,
रोज
डबडबाती आंखों से
इधर -उधर
ढूंढती है
कुछ , डरी सहमी सी
झूले के पास जाकर
ख़ुद में ही सिमटकर
खड़ी हो जाती है ,
इन्तजार करती है
शायद ,
उसकी बारी आएगी
पर ,
लूट -झपट
यहाँ भी , जरी है
धीरे से ,
वो ,खिसकती है
फिसलपट्टी पर
ऊपर चढ़ कर भी
नीचे धकेली जाती है ,
रेत में धंसे
पैर देखकर
खुश होती है ,
उठाकर गेट तक
जाती है ,
कल फ़िर ,
आने के लिए ।
रेनू ...
खामोश हैं
साँसें ,
धड़कनें खामोश हैं ,
हौले -हौले
भाव -विचार -संवेदना भी
खामोश हो रहे हैं ,
राह के बीच मैं
बना , रिश्ता
जो ,
किले की दीवार सा
दृढ़ हो चला था ,
अब ,
रेत के ढेर सा ,
बिखर रहा है ,
दूर -दूर तक
खामोशी ही
आवाज लगाती है ,
खामोशी ही
साथ रह गई है ।
रेनू ...
जीवन की आपाधापी में
कोई ,
द्रुत गति से
रास्ते बना रहा है ,
कोई ,
व्यापार , राजनीति और
संसार के झंझट में
उलझा है ,
कोई ,
पारिवारिक दांवपेंच के
जाल में
स्वयं ही फंस रहा है ।
कोई ,
मदिरालय की सीढियां
रोज चढ़कर भी
नीचे ही गिर रहा है ,
कोई ,
समाज सुधारक बन
वक्त गुजार रहा है ,
ख़ुद सुधर रहा है
समाज ,
सुधारक बिगड़ रहा है ।
कहीं ,
ईंट -गारे के
जंगल उगाए जा रहे हैं ,
पंछियों के आशियाँ
उजाडे जा रहे हैं ,
कहीं ,
धुआं छोड़ती मोटरें
मौत बाँट रही हैं ,
प्यासे शावक
बादल निहार रहे हैं ,
कहीं ,
शासक मधु चषक
गटक रहे हैं ,
बाहर
निराहार सेविका
मजदूरी मांग रही है ,
ये कैसी ,
बिडम्बना है?
कैसा तमाशा है ?
जिन पर ,
भरोसा कर कहते हैं ,
उनसा बनो ,
कमबख्त वे ही ,
यहाँ ,
विश्वास लुटा रहे हैं ,
कहाँ ?
देखें , जीवन का उजाला ,
इस ,
आपाधापी में
सब ,
भागते ही जा रहे हैं ।
रेनू ...