पास के पार्क मैं
आती है ,
रोज
डबडबाती आंखों से
इधर -उधर
ढूंढती है
कुछ , डरी सहमी सी
झूले के पास जाकर
ख़ुद में ही सिमटकर
खड़ी हो जाती है ,
इन्तजार करती है
शायद ,
उसकी बारी आएगी
पर ,
लूट -झपट
यहाँ भी , जरी है
धीरे से ,
वो ,खिसकती है
फिसलपट्टी पर
ऊपर चढ़ कर भी
नीचे धकेली जाती है ,
रेत में धंसे
पैर देखकर
खुश होती है ,
उठाकर गेट तक
जाती है ,
कल फ़िर ,
आने के लिए ।
रेनू ...
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