Wednesday, September 16, 2009

पार्क का जादू


पास के पार्क मैं

आती है ,

रोज

डबडबाती आंखों से

इधर -उधर

ढूंढती है

कुछ , डरी सहमी सी

झूले के पास जाकर

ख़ुद में ही सिमटकर

खड़ी हो जाती है ,

इन्तजार करती है

शायद ,

उसकी बारी आएगी

पर ,

लूट -झपट

यहाँ भी , जरी है

धीरे से ,

वो ,खिसकती है

फिसलपट्टी पर

ऊपर चढ़ कर भी

नीचे धकेली जाती है ,

रेत में धंसे

पैर देखकर

खुश होती है ,

उठाकर गेट तक

जाती है ,

कल फ़िर ,

आने के लिए ।

रेनू ...

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