मत भूलना कि
भीड़ की स्मृति होती है बहुत कमरखना
दृष्टी क्षितिज पर,
चलते हुए उस पथ पर,
जो ले जायेगा तुम्हें अनंत तक,
लिए काँपता ह्रदय अंतर में,
और लेकर प्रेरणा किसी के पदचिन्हों से,
क्षितिज को छू पाने की छटपटाहट के साथ,
तुम छोड़ कर उस भीड़ को,
और अपने नीड़ की सुखद ऊष्मा को,
बढोगे जब तुम आगे,
तब पाओगे,
कि चलने से तुम्हारे कोई नहीं तड़पा,
और न भरी आँख किसी की,
और जो नहीं चाहता चलना इस पथ पर,
समझ लो उसके लिए तुम रहे ही नहीं,
मत भूलना कि भीड़ की स्मृति होती है बहुत कम,
जब चलने वालों को
रोकने में नहीं हो पाती सफल,
और नहीं मिला पाती अपने में,
तब छोड़ कर उसकी चिंता
सिमिट जाती है अपने में,
करती है इन्तजार किसी और चलने वाले का,
जो चलेगा कभी
तुम्हारे पदचिन्हों से लेकर प्रेरणा,
तुम तो बस चलते जाना मत
रुकना,बस
चलते ही जाना,
चलते चलते पहुंचोगे जब क्षितिज तक
,और जब लगेगा तुम्हें कि
अब छुआ क्षितिज को,
तब ,पाओगे तुम स्वयं को ही
वहाँ, स्वागत भी करोगे स्वयं, स्वयं का ही
वहाँ, पर जब तक ऐसा न हो ,
तक मत रुकना,
लेकर स्वप्न आखों
में बस चलते जाना,
पथिक रुकना मत
बस चलते जाना................
शैलेन्द्र॥
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