Friday, June 12, 2009

prerna

प्रारम्भ किया था तुमने,
कर के स्वीकार चुनौती,
जानने सामर्थ स्वयं की,
जानने सीमायें स्वयं की,
तुम चले और चलते ही रहे,
छू लेने को क्षितिज,स्वयं की सामर्थ का,
तुम चले और चलते ही गये,
चलते चलते जी लिया तुमने अपना जीवन,
पर तुम नहीं रुके चलते ही रहे,
पहुँच जाओ जब क्षितिज तक,
सफल हो जाओ जब छूलेने में उसे,
तब देखना तुम कभी पीछे मुड कर,
तुम पाओगे दूसरे चलने वाले,
पथिक!
देखकर तुम्हारे ही छोडे हुये पदचिन्हों को,
जिन्हें तुम छोड़ गये थे जीवन पथ पर,
बिखरी हुई समय की रेत पर,
चलते हुये पथ पर जीवन के,
प्रेरित हो रहे हैं ,
तुम्हीं से हाँ तुम्हीं से,
देखते हुये पदचिन्ह तुम्हारे ही,
कर रहे होंगें कल्पना यही की कैसा होगा वह,
जो छोड़ गया पदचिन्ह,
वही पदचिन्ह,
जिनसे मिल रही है प्रेरणा,चलने वालों को,
कैसा होगा वह पथिक,अब सामने तो नहीं,
छू चुका होगा शायद क्षितिज अपना,
पर याद किया जा रहा है,
उससे जो वह छोड़ गया पीछे,
पथिक!
जब तक छू न लो क्षितिज अपना,
तब तक बस चलते जाना,
बनने प्रेरणा चलने वालों की तुम बस चलते जाना.............

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