हर उस नारी की पीड़ा से ,
मेरा ह्रदय विदीर्ण हो जाता है ,
जो , दुखों को
आंसुओं में बहा रही है ,
सपने भी ,
इन्हीं, आँखों में देख रही है ,
उनके पूरे होने की ,
आस लगा रही है ,
अधूरे सपनों को बुनती
इस नारी के सपने
मुझे अपने से लगते हैं ,
लुटा दिया ,
रिश्तों पर सर्वस्व उसने
फिर भी वह ,
पराई है ,
किस घर को अपना कहे ,
कभी , पराया धन है ,
कभी , पराई बेटी है ,
वह तो सिर्फ पराई है ,
सिर्फ पराई ,
नारी ! तेरा ये परायापन
मुझे अपना सा लगता है ,
कहाँ है ? वो भावनाओं की माला
कहाँ है ? वो संवेगों का तार
कहाँ है ? वो विश्वास के मोती ,
जिसकी वह हक़दार है ,
इन भावों को ढूंढती
उस नारी की वेदना ,
मुझे अपनी सी लगती है ,
इंतजार करती ,
सोच रही है ,
किस मधुशाला से ,
लाऊं उसे ,
अनहोनी से डरती ,
मधुशाला -मधुशाला घूम रही
उस नारी का दर्द ,
मुझे अपना सा लगता है ,
तिल -तिल कर ,
सुलग रही ,
आहें धुयें सी उड़ रहीं ,
ये , धूआ अपना सा लगता है ,
बोझ सी ,
ढो रही , जिन्दगी को ,
बिना राह के खोज रही ,
मंजिल को ,
उस दिशाहीन नारी की ,
वो मंजिल ,
मुझे अपनी सी लगती है ,
मिनी शर्मा
disha heen nari ki ansuljhi kahani , apani si lagti hai ,
ReplyDeletekisi bhav ko apane bheetar sama lena hi to , kavita hota hai ,
bahut umda likha hai .