Sunday, June 29, 2014

अहिल्या सी

तुम , शिवालय के मंडप में
मुझे , खींच रहे थे ,
मैं , बेतहाशा , बाबली सी
अपना दुपट्टा बाहर ही कहीं
गिरा आई थी ,
तुमने , मुझे , आगोश में लिया
और कहा , मुझसे दूर मत जाना
मेरा , हाथ पकड़ो ,साथ ही रहो ,
कुछ तो , अनहोनी होने जा रही थी ,
मेरी , सांसें उखड रहीं थीं ,
तुम , मेरी आँखों में
समाते जा रहे थे ,
तुम्हारा , चेहरा सफ़ेद हो रहा था ,
लोगों का सैलाव
मंदिर के भीतर आ रहा था ,
मानो ,शिव ही सबको
साध लेंगे , बाहर घनघोर
बारिश हो रही थी ,
लग रहा था , आज ही
कृष्ण का जन्म हुआ हो ,
पल भर में , हम कीचड में
समाने लगे , तुम , मेरा हाथ
थामे थे , मैं ,
सैलाव के साथ बह रही थी ,
अचानक एक स्तम्भ हमारे
बीच आ गया ,
तुम्हारा हाथ , मेरे हाथ से छूट गया ,
मैं , मूर्छित हो चली थी ,
न , संभल रही थी , न,
डूब पा रही थी , तुम ,
मुझे , अपलक देखकर चीख रहे थे ,
मैं , मंदिर प्रांगण में
मिटटी , पानी , पत्थर के गारे में
अहिल्या सी , जमती जा रही थी ,
मानो ,किसी विश्वामित्र का
शाप लगा हो ,
तभी , कुछ मेरे भीतर समाया सा लगा ,
हम मृत प्राय ,एक दूसरे में
उलझकर भूमि में गढ़ गए थे ,
धरती हमें निवाला बना रही थी ,
फिर ,हम , आजाद थे
देख रहे थे , कैसे जल धारा
हजारों प्राणियों को अपने
रास्ते से हटा रही है ,
महाकाल बिकराल बन
संहार कर रहे हैं ,
हम बादलों के पार
अठखेलियां कर रहे थे।

रेनू शर्मा           

प्रलय

कई बार , कल्पना की थी
यदि , जल प्रलय हुई
तो , क्या मंजर होगा ?
एक , अतिकल्पनशीलता
हर बार , मुझे ,
प्रलय लीलाओं की ओर
धकेलती थी , जब ,
रुपरेखा बनी , तब
रूह भी काँप गई ,
लगता था , कि , ऐसा नहीं
हो सकता , ऐसा
अंत नहीं ,
लेकिन , उत्तराखंड की
१६/६/१३/की जल प्रलय लीला का
बीभत्स दृश्य देखा , तो
अचम्भित रह गई ,
जैसे , सब कुछ दोहराया जा रहा था ,
लोग , तिनकों से जल धारा में ,
बह रहे थे ,घर , दुकान , मकान
मंदिर , शिवालय सब
जल की तीव्र धारा में
खंडित हो , रेत के स्वप्न से
बिखर रहे थे ,
बड़े पहाड़ , चट्टानें ,मिटटी सब
नदी बनकर बह रहे थे ,
भयंकर हुंकार भर्ती नदियां
बिकराल राक्षसी सी ,
चीत्कार रहीं थीं ,
बचे -खुचे इंसान
इधर -उधर भाग रहे थे ,
सब , जहाँ -तहाँ बिलख रहे थे ,
कोई तो , मसीहा आये ,
उन्हें बचाये , ईश्वर !!
मौन , स्तब्ध , निरुत्तर सा
निराकार होकर भूमि दोज
हो गया था , मानो ,कहना चाहता हो ,
देखो !! मैं भी , बेबस हूँ
एक , भयानक वीरानी वादियों में
समाहित हो रही थी ,
कहीं , दरिया धरती का सीना चीरकर
उदंडता से बह रहा था ,
कहीं , धरती अपने ही भीतर
समां रही थी , कहीं ,
पत्थर खंड -खंड हो
शिवपिंड बन रहे थे ,
पशु -पक्षी , जानवर ,कीड़े , मकोड़े
सब जीव धारा -प्रवाह में
कण -कण बंट कर
रेत बन रहे थे ,
मैं , तो यूँ ही , कल्पना कर बैठी
जब ,साकार हुई तो ,
निराकार सी किंकर्तव्य विमूढ़ सी
मूंक -बधिर सी
ठगी -की -ठगी रह गई।

रेनू शर्मा 

मजबूरी

माँ , की चिंता
पिता की परवरिश
एक दिन , खोखले रह गए
जब , बच्चों ने उनके
वजूद को ही धिक्कार दिया ,
ओछा साबित कर दिया ,
उन्हें , मजबूर कर दिया
अपने हर निर्णय ,स्वप्न
आशाओं को बदलने के लिए ,
लाचार , बेबस , अपाहिज से
माता -पिता ,
थोथी परम्पराओं और
समाज की जिल्ल्तों को
अपने ,निर्वल कन्धों पर
ढोने के लिए कतार बद्ध
हो गए ,
चौराहे पर घटते तमाशे में
स्वयं , तमाशबीन बन गए ,
बच्चे , उन्हें हराकर , तोड़कर
झुकाकर , बदलकर
गौरवान्वित हो रहे थे ,
यही , दस्तूर अब , हर
माता -पिता का भोग
बन गया है , जीवन से
सीख लेने की पाठशाला
बन गया है।

रेनू शर्मा 

मंजर

माँ , दो राहे पर खड़ी थी ,
किस , राह पर चल दे
समझ नहीं पा रही थी ,
दूर अनजान , वीरानी राह पर
जहाँ , छितिज भी
धूमिल था , न , कोई तिनका
न ,कोई घास
पत्थर और धूल का गुबार था ,
बच्चा , भटक रहा था
असमंजस के हालात थे
माँ , हताश , निराश
भीगी पलकों से
बच्चे को , निहार रही थी
आवाज दे रही थी ,
जो , कंठ में कहीं
अटक रही थी ,
हाथ उठा रही थी ,
रोकने के लिए , लेकिन
लाचार थी , बेबस सी माँ !
सुबह के धुंधलके मेँ
बिस्तर पर अवाक् बैठी ,
भयानक स्वप्न का
मंजर याद कर
सिहर रही थी।

रेनू शर्मा

अतिक्रमण

वो , कैसे , मर्यादा का
अतिक्रमण कर  सकते हैं ?
बड़ी -बड़ी आँखों में
लापरवाही , उज्जडता
जड़ता बहती सी
लगती है ,
शरीर की भाषा
साफ बोलती है ,
जिसे ,हम , समझकर भी
अनसमझा करते हैं ,
वो , दूर होते बांहों के दायरे में ,
खुद से घुसने का
प्रयास करते हैं ,
वो , हर घडी , हर पल
हठता दिखा देते हैं ,
हम , फिर भी समझते हैं
कि , वे , बेअक्ल हैं ,
सब ठीक होगा।

रेनू शर्मा


हम और वे

हम अपने ही
सुरक्षा चक्रों में
भटक गए हैं ,
वो , अपनी नई
इबारत  लिख रहे हैं ,
अपने नियम , सिद्धांत
फलसफे बना रहे हैं ,
हम , अपनी भावनाओं के
समंदर को बेवजह
उन पर उड़ेल रहे हैं ,
न , वे , सोच रहे हैं ,
न ,वे ,समझ रहे हैं ,
न ,वे , दूर जा रहे हैं ,
न ,वे ,पास आ रहे हैं ,
हम , रात भर करवटें
बदलते हुए ,
उन्हीं के कवच
बन रहे हैं और वे ,
न , जाने , कबसे
हमारे आशियाँ से कूंच
कर चुके हैं।

रेनू शर्मा  

Friday, June 27, 2014

भागम -भाग

यहाँ , कोई रोटी के लिए
तरस रहा है ,
कोई , कपडे के लिए
जद्दोजहद कर रहा है ,
कोई , घरोंदे के लिए
कश्मकश में लगा है ,
कोई , बेचारगी का मारा
आश्रम की सीढ़ियों पर
बेजार पड़ा है ,
कोई , घर से निष्कासित
अवाक् द्विराहे पर खड़ा है ,
कोई , प्रेमिका से छला
प्रेमी से परित्यक्त ,
रिश्तों से प्रताणित
संचार साधनों पर
समाधान खोज रहा है ,
कोई , राजगद्दी की चाह में
खेत -खलिहान , गली -चौबारों
शहर -मौहल्लों की
खाक छान रहा है ,
कोई , बेपनाह ,असीमित
बैभव के बीच ,
राज सुख भोगकर
अंगुलियां चाट रहा है ,
कोई , संसद के गलियारों में
वोटों का गणित लगा रहा है ,
कोई , दीगर हस्तियों को
घूल चटाने को , साम -दाम
दंड -भेद का सहारा ले रहा है ,
कोई , षड्यंत्र के कुचक्र को
नेस्तनाबूद करने को ,
डॉलर , टका , रुपया ,दिनार का
जाल बुन रहा है ,
कोई , भृष्टाचार , हेराफेरी की
दलाली को उजागर कर ,
परदे पर बेपर्दा कर रहा है ,
कोई , आतंक , खौफ
बलात्कार , हत्या , अपहरण
चोरी ,डकैती , लूट और राजनीति की
शिक्षा में पारंगत हो
अशिक्षा का बिगुल बजा रहा है ,
कोई , कार्पोरेट जगत की
नौकरी कर दिन -रात
पैसों का हिसाब लगा रहा है ,
कोई , रात भर करवटें बदल
सुबह ,परिंदों को दाना बिखेरने का
इंतजार कर रहा है ,
कोई , पक्तिबद्ध हो सहारे से बैठे
किसी के अपनों को
रोटी -अचार बाँट रहा है ,
कोई , जिंदगी की भागम -भाग में ,
पीछे छूटे अरमानों को ,
बच्चों को किलकारी में
डुबो रहा है ,
कोई , जटाओं का जंजाल
सर पर बांधे ,जीवन मुक्ति के लिए
ध्यान में आकंठ डूबा ,
स्वयं में उसे पाने का
प्रयास कर रहा है ,
कोई , प्रसव पीड़ा से ग्रस्त
माँ , के कोटर से
यहाँ , पधारने की कोशिश कर रहा है।

रेनू शर्मा