हर दिन पहले से अधिक
अकेली ,
हो रही हूँ ,
कभी , चहल -पहल
नौक -झौंक , धींगा -मस्ती
पीछा नहीं छोड़ती थी ,
अब , किताबों के
पन्नों में , बीते पलों को
खोजती हूँ ,
कभी , शब्दों के बाजार में
अपने ही विचारों की
बोली लगाती हूँ ,
कभी , चिंतन -मनन में
डूबती -उतरती
भविष्य को देख
सिहर उठती हूँ ,
हर -दिन आभास होता है
जीवन कितना एकाकी
विहंगम ,अकल्पनीय
कितना नाटकीय है ,
कुछ भी , इच्छा -अनिच्छा
हमारी नहीं ,
सब कुछ , ग्रह -नक्षत्रों की
बाजीगरी का पटाक्षेप है ,
हर पल , रहस्यात्मक व्
अलौकिक है ,फिर भी
क्यूँ , विचारों का सागर लिए
भाग रही हूँ ,
दूर नहीं हो पाती खुद से
दौड़ रही हूँ हर -पल।
रेनू शर्मा
अकेली ,
हो रही हूँ ,
कभी , चहल -पहल
नौक -झौंक , धींगा -मस्ती
पीछा नहीं छोड़ती थी ,
अब , किताबों के
पन्नों में , बीते पलों को
खोजती हूँ ,
कभी , शब्दों के बाजार में
अपने ही विचारों की
बोली लगाती हूँ ,
कभी , चिंतन -मनन में
डूबती -उतरती
भविष्य को देख
सिहर उठती हूँ ,
हर -दिन आभास होता है
जीवन कितना एकाकी
विहंगम ,अकल्पनीय
कितना नाटकीय है ,
कुछ भी , इच्छा -अनिच्छा
हमारी नहीं ,
सब कुछ , ग्रह -नक्षत्रों की
बाजीगरी का पटाक्षेप है ,
हर पल , रहस्यात्मक व्
अलौकिक है ,फिर भी
क्यूँ , विचारों का सागर लिए
भाग रही हूँ ,
दूर नहीं हो पाती खुद से
दौड़ रही हूँ हर -पल।
रेनू शर्मा
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