Sunday, June 29, 2014

मंजर

माँ , दो राहे पर खड़ी थी ,
किस , राह पर चल दे
समझ नहीं पा रही थी ,
दूर अनजान , वीरानी राह पर
जहाँ , छितिज भी
धूमिल था , न , कोई तिनका
न ,कोई घास
पत्थर और धूल का गुबार था ,
बच्चा , भटक रहा था
असमंजस के हालात थे
माँ , हताश , निराश
भीगी पलकों से
बच्चे को , निहार रही थी
आवाज दे रही थी ,
जो , कंठ में कहीं
अटक रही थी ,
हाथ उठा रही थी ,
रोकने के लिए , लेकिन
लाचार थी , बेबस सी माँ !
सुबह के धुंधलके मेँ
बिस्तर पर अवाक् बैठी ,
भयानक स्वप्न का
मंजर याद कर
सिहर रही थी।

रेनू शर्मा

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