माँ , की चिंता
पिता की परवरिश
एक दिन , खोखले रह गए
जब , बच्चों ने उनके
वजूद को ही धिक्कार दिया ,
ओछा साबित कर दिया ,
उन्हें , मजबूर कर दिया
अपने हर निर्णय ,स्वप्न
आशाओं को बदलने के लिए ,
लाचार , बेबस , अपाहिज से
माता -पिता ,
थोथी परम्पराओं और
समाज की जिल्ल्तों को
अपने ,निर्वल कन्धों पर
ढोने के लिए कतार बद्ध
हो गए ,
चौराहे पर घटते तमाशे में
स्वयं , तमाशबीन बन गए ,
बच्चे , उन्हें हराकर , तोड़कर
झुकाकर , बदलकर
गौरवान्वित हो रहे थे ,
यही , दस्तूर अब , हर
माता -पिता का भोग
बन गया है , जीवन से
सीख लेने की पाठशाला
बन गया है।
रेनू शर्मा
पिता की परवरिश
एक दिन , खोखले रह गए
जब , बच्चों ने उनके
वजूद को ही धिक्कार दिया ,
ओछा साबित कर दिया ,
उन्हें , मजबूर कर दिया
अपने हर निर्णय ,स्वप्न
आशाओं को बदलने के लिए ,
लाचार , बेबस , अपाहिज से
माता -पिता ,
थोथी परम्पराओं और
समाज की जिल्ल्तों को
अपने ,निर्वल कन्धों पर
ढोने के लिए कतार बद्ध
हो गए ,
चौराहे पर घटते तमाशे में
स्वयं , तमाशबीन बन गए ,
बच्चे , उन्हें हराकर , तोड़कर
झुकाकर , बदलकर
गौरवान्वित हो रहे थे ,
यही , दस्तूर अब , हर
माता -पिता का भोग
बन गया है , जीवन से
सीख लेने की पाठशाला
बन गया है।
रेनू शर्मा
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