Sunday, June 29, 2014

प्रलय

कई बार , कल्पना की थी
यदि , जल प्रलय हुई
तो , क्या मंजर होगा ?
एक , अतिकल्पनशीलता
हर बार , मुझे ,
प्रलय लीलाओं की ओर
धकेलती थी , जब ,
रुपरेखा बनी , तब
रूह भी काँप गई ,
लगता था , कि , ऐसा नहीं
हो सकता , ऐसा
अंत नहीं ,
लेकिन , उत्तराखंड की
१६/६/१३/की जल प्रलय लीला का
बीभत्स दृश्य देखा , तो
अचम्भित रह गई ,
जैसे , सब कुछ दोहराया जा रहा था ,
लोग , तिनकों से जल धारा में ,
बह रहे थे ,घर , दुकान , मकान
मंदिर , शिवालय सब
जल की तीव्र धारा में
खंडित हो , रेत के स्वप्न से
बिखर रहे थे ,
बड़े पहाड़ , चट्टानें ,मिटटी सब
नदी बनकर बह रहे थे ,
भयंकर हुंकार भर्ती नदियां
बिकराल राक्षसी सी ,
चीत्कार रहीं थीं ,
बचे -खुचे इंसान
इधर -उधर भाग रहे थे ,
सब , जहाँ -तहाँ बिलख रहे थे ,
कोई तो , मसीहा आये ,
उन्हें बचाये , ईश्वर !!
मौन , स्तब्ध , निरुत्तर सा
निराकार होकर भूमि दोज
हो गया था , मानो ,कहना चाहता हो ,
देखो !! मैं भी , बेबस हूँ
एक , भयानक वीरानी वादियों में
समाहित हो रही थी ,
कहीं , दरिया धरती का सीना चीरकर
उदंडता से बह रहा था ,
कहीं , धरती अपने ही भीतर
समां रही थी , कहीं ,
पत्थर खंड -खंड हो
शिवपिंड बन रहे थे ,
पशु -पक्षी , जानवर ,कीड़े , मकोड़े
सब जीव धारा -प्रवाह में
कण -कण बंट कर
रेत बन रहे थे ,
मैं , तो यूँ ही , कल्पना कर बैठी
जब ,साकार हुई तो ,
निराकार सी किंकर्तव्य विमूढ़ सी
मूंक -बधिर सी
ठगी -की -ठगी रह गई।

रेनू शर्मा 

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