तुम , शिवालय के मंडप में
मुझे , खींच रहे थे ,
मैं , बेतहाशा , बाबली सी
अपना दुपट्टा बाहर ही कहीं
गिरा आई थी ,
तुमने , मुझे , आगोश में लिया
और कहा , मुझसे दूर मत जाना
मेरा , हाथ पकड़ो ,साथ ही रहो ,
कुछ तो , अनहोनी होने जा रही थी ,
मेरी , सांसें उखड रहीं थीं ,
तुम , मेरी आँखों में
समाते जा रहे थे ,
तुम्हारा , चेहरा सफ़ेद हो रहा था ,
लोगों का सैलाव
मंदिर के भीतर आ रहा था ,
मानो ,शिव ही सबको
साध लेंगे , बाहर घनघोर
बारिश हो रही थी ,
लग रहा था , आज ही
कृष्ण का जन्म हुआ हो ,
पल भर में , हम कीचड में
समाने लगे , तुम , मेरा हाथ
थामे थे , मैं ,
सैलाव के साथ बह रही थी ,
अचानक एक स्तम्भ हमारे
बीच आ गया ,
तुम्हारा हाथ , मेरे हाथ से छूट गया ,
मैं , मूर्छित हो चली थी ,
न , संभल रही थी , न,
डूब पा रही थी , तुम ,
मुझे , अपलक देखकर चीख रहे थे ,
मैं , मंदिर प्रांगण में
मिटटी , पानी , पत्थर के गारे में
अहिल्या सी , जमती जा रही थी ,
मानो ,किसी विश्वामित्र का
शाप लगा हो ,
तभी , कुछ मेरे भीतर समाया सा लगा ,
हम मृत प्राय ,एक दूसरे में
उलझकर भूमि में गढ़ गए थे ,
धरती हमें निवाला बना रही थी ,
फिर ,हम , आजाद थे
देख रहे थे , कैसे जल धारा
हजारों प्राणियों को अपने
रास्ते से हटा रही है ,
महाकाल बिकराल बन
संहार कर रहे हैं ,
हम बादलों के पार
अठखेलियां कर रहे थे।
रेनू शर्मा
मुझे , खींच रहे थे ,
मैं , बेतहाशा , बाबली सी
अपना दुपट्टा बाहर ही कहीं
गिरा आई थी ,
तुमने , मुझे , आगोश में लिया
और कहा , मुझसे दूर मत जाना
मेरा , हाथ पकड़ो ,साथ ही रहो ,
कुछ तो , अनहोनी होने जा रही थी ,
मेरी , सांसें उखड रहीं थीं ,
तुम , मेरी आँखों में
समाते जा रहे थे ,
तुम्हारा , चेहरा सफ़ेद हो रहा था ,
लोगों का सैलाव
मंदिर के भीतर आ रहा था ,
मानो ,शिव ही सबको
साध लेंगे , बाहर घनघोर
बारिश हो रही थी ,
लग रहा था , आज ही
कृष्ण का जन्म हुआ हो ,
पल भर में , हम कीचड में
समाने लगे , तुम , मेरा हाथ
थामे थे , मैं ,
सैलाव के साथ बह रही थी ,
अचानक एक स्तम्भ हमारे
बीच आ गया ,
तुम्हारा हाथ , मेरे हाथ से छूट गया ,
मैं , मूर्छित हो चली थी ,
न , संभल रही थी , न,
डूब पा रही थी , तुम ,
मुझे , अपलक देखकर चीख रहे थे ,
मैं , मंदिर प्रांगण में
मिटटी , पानी , पत्थर के गारे में
अहिल्या सी , जमती जा रही थी ,
मानो ,किसी विश्वामित्र का
शाप लगा हो ,
तभी , कुछ मेरे भीतर समाया सा लगा ,
हम मृत प्राय ,एक दूसरे में
उलझकर भूमि में गढ़ गए थे ,
धरती हमें निवाला बना रही थी ,
फिर ,हम , आजाद थे
देख रहे थे , कैसे जल धारा
हजारों प्राणियों को अपने
रास्ते से हटा रही है ,
महाकाल बिकराल बन
संहार कर रहे हैं ,
हम बादलों के पार
अठखेलियां कर रहे थे।
रेनू शर्मा
No comments:
Post a Comment