Sunday, June 15, 2014

चेहरा

खुले दरवाजे पर
दस्तक हुई ,
जाना पहचाना चेहरा
भीतर आ गया ,
न मिलने की ख़ुशी थी
न उसके आने की ललक थी
पत्थर से तराशा भावहीन चेहरा
एक ,शिल्प सा घर में आ गया ,
देर तक ,हम अपने ही वजूद को
चुनौती देते रहे ,
कठपुतली से अपने कर्म को
खुद ही सराहते रहे ,
न मन शांत हुआ ,न
झंझावात थमे , लगा जैसे
वीराने में किसी ने
आहट की है ,
खुले दरवाजे पर
फिर से , दस्तक की आस लिए
चेहरा , पहले से ज्यादा
अजनवी बन चला गया।

रेनू शर्मा 

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