ब्रज की हवाओं से
कुञ्ज गलियों का ,
पता पूछती
मेरी निगाहें ,
थक सी रहीं हैं ।
आम के बौर ,
नीम के फूल की सुगंध ,
सरसराकर
मेरा मस्तिस्क ,
झकझोर रहे हैं ।
हौले से पुकार कर
लुका -छुपी खेल रहे हैं ।
महुआ गदरा रहा है ,
टेसू के फूल ,
बिखर रहे हैं बगिया में।
मेरी रूह , लौट रही है
उपवन में ,
धीरे से कोई धप्पी देकर
भाग रहा है ।
पलाश जल रहा है
होली की आग सा ।
नन्हीं कलियाँ हंस रही है
बाटिका में ।
मैं , खिंच रहा हूँ , तेजी से
कुञ्ज गलियों मैं ।
मोहपाश के रंग मैं बांधकर
मुझे , डुबो रहा है कोई
ब्रज की हवाएं दूर खडीं
चिडा रहीं हैं मुझे ।
रेनू ......
Monday, March 16, 2009
आस
कहकहे बटोरती
तिलिस्म बिखराती ,
आईने में जिंदगी
निहारती ,
काँटों को सवांरती ,
फूलों को सहेजती
सूखे पत्तों को
समेटती ,
बादलों में छुपाती ,
हवाओं के साथ उड़ती
मौसम सी बदलती ,
कभी ,
संगीत सी बजती
स्त्री ,
कठपुतली सी ।
पुरूष के बनाये
रंग मंच पर फुदकती है ।
मानो ,
टांग दी गई हो
खूँटी पर ,
बंधन खुलने की
आस में ।
रेनू ...
सुबक रहा है
टेसू फूलकर
लाल हो गया है ,
पतझड़ थमता नही ,
बसंत रुकता नहीं
बादल घुमड़ते हैं ,
झमाझम बरसते हैं
पर , इस बार
फागुन ,
रंगता नही ।
खामोश है
तन और मन ,
ख्वाबों का सैलाव
दरक सा रहा है ।
वजूद
मिटने की
छटपटाहट है ।
हर रोज झाड़ रहे हैं ,
पत्तों की तरह
उमंगों के फूल ,
खंडहर सी खड़ी हूँ
मेरे हौसले सा ,
बसंत ,
सुबक रहा है ।
रेनू ....
Saturday, March 14, 2009
टूटना मत
जब , छोटी थी तब ,
मदमस्त , बेखबर
तितली सी ,
कभी इधर
कभी उधर ,
मंडराती थी ।
कभी भाई से लड़ना ,
सखी से मिलना ,
माँ से उलझना ,
पिता से अटकना
सब ,
बेलगाम चलता था ।
अब , जब , पीहर
पीछे छूट गया है ,
तब ,
माँ , कहती है -
वे ही तुम्हारे माता -पिता हैं
पिता कहते हैं -
वही तुम्हारा घर है ,
भाई कहता है -
टूटना मत ,
सखी कहती है -
बिखरना मत ,
मैं , कहती हूँ -
मुझे पहले बताया होता ,
क्या , नही करना ।
क्यों ?
मैं , फ़िर से
बेटी नही बन सकती ।
रेनू ....
Tuesday, March 10, 2009
रंग सा बरस रहा है
हवाओं से
बात करती
गति ,
मनो रेस
खेल रही है ।
नदी , झरने
ताल , तलैया
पेड , पौधे
सब ,
दौड़ रहे हैं
साथ -साथ ।
यह , दृष्टि भ्रम है
मैं , जानती हूँ ।
मेरे रुकते ही
सब ,
थम जाते हैं ।
मैं , बहक रही हूँ ।
दूर फिजाओं में
बादल घुमड़ रहे हैं
रंग सा बरस रहा है ,
भीतर बैठी में ,
अन्दर तक
भींग रही हूँ ।
क्षितिज लापता सा
हो रहा है ।
मेरे पास ही प्रकृति
कहकहे लगा रही है
मनो ,
संगीत छेड़ दिया हो ,
गति थम गई है ।
रंग सा बरस रहा है
हमारे आस -पास ।
रेनू शर्मा .......
Friday, March 6, 2009
इनका दिवस
रोज़ की तरह
आज भी, वे
महिला दिवस
मन रही हैं
कभी,
गहने खरीद रही हैं
कभी साड़ी।
सहेली के साथ
सिनेमा जाने का
मन बना रही हैं,
साहब का लंच
बहार ही होगा
इसलिए,
स्वयं पिज्जा खा रही हैं।
बड़ी आसानी से
झिड़क देती हैं
फुटपाथ पर
भीख मांगती
औरत को
ये आधुनिक महिला
अपने अस्तित्व को
भुना रही हैं
तभी तो
शेहेर भर की
सड़कों पर
इनकी गाड़ी
सरपट दौड़ रही है।
रेनू...
महिला दिवस
Wednesday, 4 March 2009
कैसा महिला दिवस ?
वो ,
तडके सवेरे ,
बटोरी लकडियों से
चूल्हा जला ,
रोटियां सेक
हाथ में ,
श्रमिक वाला
थैला पकड़ ,
नंगे पैर
चिलचिलाती धूप में
सड़क पर
दौड़ रही थी ।
पीठ की झोली में
बेटी को ,
बाँध लिया है
अपने भाग्य सा ,
किसी दरख्त के साये में
झुला देगी उसे ,
मीठे सपनों की नींद
और
जुट जायेगी
फावडा , गैंती
लेकर
अपने कर्म खोदने ।
जब ,
सिमट जाएगा दिन
तब ,
अल्प फल के साथ
दौड़ पड़ेगी
आशियाने की तरफ़ ,
क्योंकि
मर्द ,
उसके महिलातत्व का
स्वागत करने
विकल बैठा है ।
धुनी हुई रुई सी
तार -तार होकर
फ़िर से ,
महिला मजदूर की
पंक्ति में समाहित
हो लेगी ।
जिन्दगी यूँ ही
तमाम कर देगी
एक महिला ।
रेनू ......
कैसा महिला दिवस ?
वो ,
तडके सवेरे ,
बटोरी लकडियों से
चूल्हा जला ,
रोटियां सेक
हाथ में ,
श्रमिक वाला
थैला पकड़ ,
नंगे पैर
चिलचिलाती धूप में
सड़क पर
दौड़ रही थी ।
पीठ की झोली में
बेटी को ,
बाँध लिया है
अपने भाग्य सा ,
किसी दरख्त के साये में
झुला देगी उसे ,
मीठे सपनों की नींद
और
जुट जायेगी
फावडा , गैंती
लेकर
अपने कर्म खोदने ।
जब ,
सिमट जाएगा दिन
तब ,
अल्प फल के साथ
दौड़ पड़ेगी
आशियाने की तरफ़ ,
क्योंकि
मर्द ,
उसके महिलातत्व का
स्वागत करने
विकल बैठा है ।
धुनी हुई रुई सी
तार -तार होकर
फ़िर से ,
महिला मजदूर की
पंक्ति में समाहित
हो लेगी ।
जिन्दगी यूँ ही
तमाम कर देगी
एक महिला ।
रेनू ......
मेरा घर
Friday, 27 February 2009
मेरा घर
परिंदे के छोड़े घरोंदे सा
मेरा घर ,
कभी -कभी
सूना सा लगता है ।
झरोखे , बालकनी , छत
आँगन और मुडेर
सुरक्षा देती हैं ।
हवा , रौशनी से नहाया
पत्थर का घर भी
ढहते किले सा लगता है ।
एकांत दूर ले जाता है
हलचल में भी ,
खामोश बैठी , तनहा
विचारों के तूफ़ान घेर लेते हैं ।
अपनों से दूर ,
अपने पास चली आती हूँ ,
हर रोज परिंदे सी ,
घरोंदा सजा लेती हूँ ।
कुछ लम्हों के लिए ही सही
जिन्दगी में लौट आती हूँ ।
रेनू ....
मेरा घर
परिंदे के छोड़े घरोंदे सा
मेरा घर ,
कभी -कभी
सूना सा लगता है ।
झरोखे , बालकनी , छत
आँगन और मुडेर
सुरक्षा देती हैं ।
हवा , रौशनी से नहाया
पत्थर का घर भी
ढहते किले सा लगता है ।
एकांत दूर ले जाता है
हलचल में भी ,
खामोश बैठी , तनहा
विचारों के तूफ़ान घेर लेते हैं ।
अपनों से दूर ,
अपने पास चली आती हूँ ,
हर रोज परिंदे सी ,
घरोंदा सजा लेती हूँ ।
कुछ लम्हों के लिए ही सही
जिन्दगी में लौट आती हूँ ।
रेनू ....
मेरे दोस्त
मेरे दोस्त
मेरी दोस्ती
बुलबुल से है ,
जो सुबह का नाश्ता
मेरी चाय के साथ करती है ।
मेरी सखी वो चिडिया है ,
जो , दोपहर का खाना
मुझसे मांग कर करती है
चहचहाती है जब मैं ,
भूल जाती हूँ
समय पर खाना देना ।
मेरे इर्द -गिर्द चक्कर लगा
उपस्तिथि दर्ज कराती है ।
मेरी सहेली
वो गिलहरी है , जो
टिल -टिल करती है , जब
बिल्ली झांकती है ।
फैले अख़बार पर
फुदक जाती है ,
खाने की खुशबु
सूंघती हुई ।
मेरे दोस्त , वे
कौवे हैं ,जो
हर शाम डूबते सूरज के साये से
पैदा होते लगते हैं ,
खेलते हैं , साथियों से कुछ
कहते भी हैं ।
शांत , ध्यानस्त से उड़ जाते हैं ।
रंग -बिरंगे बादलों के
घरों से निकलते उनके झुंड ,
ऐसे लगते हैं , मानो
वे सूरज के उगने से पहले ही
पूर्व में समां जाना चाहते हैं ।
जाने कहाँ से आते हैं ?
जाने कहाँ जाते हैं ?
मेरे दोस्त रोज मिलते हैं ।
दिन भर की शिकायतें ,
तकरार , क्रोध , और सामीप्य
सब कुछ बांटते हैं ।
मेरे दोस्त ।
रेनू ......
मेरी दोस्ती
बुलबुल से है ,
जो सुबह का नाश्ता
मेरी चाय के साथ करती है ।
मेरी सखी वो चिडिया है ,
जो , दोपहर का खाना
मुझसे मांग कर करती है
चहचहाती है जब मैं ,
भूल जाती हूँ
समय पर खाना देना ।
मेरे इर्द -गिर्द चक्कर लगा
उपस्तिथि दर्ज कराती है ।
मेरी सहेली
वो गिलहरी है , जो
टिल -टिल करती है , जब
बिल्ली झांकती है ।
फैले अख़बार पर
फुदक जाती है ,
खाने की खुशबु
सूंघती हुई ।
मेरे दोस्त , वे
कौवे हैं ,जो
हर शाम डूबते सूरज के साये से
पैदा होते लगते हैं ,
खेलते हैं , साथियों से कुछ
कहते भी हैं ।
शांत , ध्यानस्त से उड़ जाते हैं ।
रंग -बिरंगे बादलों के
घरों से निकलते उनके झुंड ,
ऐसे लगते हैं , मानो
वे सूरज के उगने से पहले ही
पूर्व में समां जाना चाहते हैं ।
जाने कहाँ से आते हैं ?
जाने कहाँ जाते हैं ?
मेरे दोस्त रोज मिलते हैं ।
दिन भर की शिकायतें ,
तकरार , क्रोध , और सामीप्य
सब कुछ बांटते हैं ।
मेरे दोस्त ।
रेनू ......
औरत
Tuesday, 10 February 2009
औरत
दहकते अंगारों जैसी गोलाकार , गुलाबी डोरों से आवृत , घृणा से सराबोर तोते सी , उनकी आँखें बींध रहीं थीं , मुझे , अरसे से सुलग कर , अधजले कोयले सी बुझ रही थी , मैं , यकायक , भभक कर , जल उठी ,मानो चिंगारी लगा दी हो , पता नही क्यों ? राख से भस्म भी नही हो पा रही हूँ , मैं , बार -बार शोला सा भड़क उठता है , कहीं कोई , नदिया नहीं मिलती , जहाँ बहा दूँ , औरत को । कहीं कोई , शमशान नही मिलता , जहाँ मिटा दूँ , औरत को । यहाँ इस दरींचे में रफ्ता -रफ्ता ,जिंदगी तमाम हो रही है । कहने को , गुलशन भी महक रहा है , हवाएं भी , बहक रहीं हैं लेकिन , मेरा वजूद मृत सा , जान पड़ता है ,यहाँ औरत , हर दिन , हर रात दांव पर खेली जाती है । कहने को , दरवाजे बहुत हैं , पर हर द्वार , औरत पर आकर बंद हो जाता है । एक झरोखे के खुलने का इंतजार है , जहाँ , औरत प्रकाशित हो सके । रेनू .....
औरत
दहकते अंगारों जैसी गोलाकार , गुलाबी डोरों से आवृत , घृणा से सराबोर तोते सी , उनकी आँखें बींध रहीं थीं , मुझे , अरसे से सुलग कर , अधजले कोयले सी बुझ रही थी , मैं , यकायक , भभक कर , जल उठी ,मानो चिंगारी लगा दी हो , पता नही क्यों ? राख से भस्म भी नही हो पा रही हूँ , मैं , बार -बार शोला सा भड़क उठता है , कहीं कोई , नदिया नहीं मिलती , जहाँ बहा दूँ , औरत को । कहीं कोई , शमशान नही मिलता , जहाँ मिटा दूँ , औरत को । यहाँ इस दरींचे में रफ्ता -रफ्ता ,जिंदगी तमाम हो रही है । कहने को , गुलशन भी महक रहा है , हवाएं भी , बहक रहीं हैं लेकिन , मेरा वजूद मृत सा , जान पड़ता है ,यहाँ औरत , हर दिन , हर रात दांव पर खेली जाती है । कहने को , दरवाजे बहुत हैं , पर हर द्वार , औरत पर आकर बंद हो जाता है । एक झरोखे के खुलने का इंतजार है , जहाँ , औरत प्रकाशित हो सके । रेनू .....
संभावना
संभावना
समुद्र की तलहटी तक जाने वाले
क्या नाप सकेंगे दिल की गहराई ?
नीले आसमान के क्षितिज तक
उड़ने वाले ,
क्या कभी छू सकेंगे ,
इच्छाओं की ऊँचाइयाँ ?
चन्द्र व् मंगल तक
विराटता में विचरने वाले ,
क्या कभी जान पाएंगे
आत्मा की विराटता को ?
परम की शून्यता को
शून्यता की चेतना को ,
क्या समझ सकेंगे ?
तकनीकी चेतना के जनक !!
दिल की गहराइयों को नापना ,
इच्छाओं की ऊँचाई को छूना ,
आत्मा की विराटता को जानना ,
शून्यता की चेतना को समझना ।
सम्भव है ,
उनके लिए ,जो
खोज सके पूर्ण रूप से ,
स्वयं में स्वयं को ।
विमल .....
समुद्र की तलहटी तक जाने वाले
क्या नाप सकेंगे दिल की गहराई ?
नीले आसमान के क्षितिज तक
उड़ने वाले ,
क्या कभी छू सकेंगे ,
इच्छाओं की ऊँचाइयाँ ?
चन्द्र व् मंगल तक
विराटता में विचरने वाले ,
क्या कभी जान पाएंगे
आत्मा की विराटता को ?
परम की शून्यता को
शून्यता की चेतना को ,
क्या समझ सकेंगे ?
तकनीकी चेतना के जनक !!
दिल की गहराइयों को नापना ,
इच्छाओं की ऊँचाई को छूना ,
आत्मा की विराटता को जानना ,
शून्यता की चेतना को समझना ।
सम्भव है ,
उनके लिए ,जो
खोज सके पूर्ण रूप से ,
स्वयं में स्वयं को ।
विमल .....
पत्थर
Thursday, 5 February 2009
पत्थर
तुमको रास न आए ,
मेरे गुलिस्तां के फूल भी ,
हमको अजीज हैं ,
तेरे आँगन का भी पत्थर ।
तिनका -तिनका याद तुम्हारी ,
एक घरोंदा बना गई ।
एहसास तुम्हारे छूने का ,
ज्यों पानी मैं गिरता पत्थर ।
यादों के समुन्दर में ,
खुशबू तेरी आई ।
तूफां के साथ आया ,
तेरे एहसास का पत्थर ।
शीशे के घरोंदों में ,
दीवारें नही होतीं ।
तुम तो तलाशते रहे ,
नींव का पत्थर ।
एहसासों के जंगल में ,
तुमको न मिली पगडण्डी भी ।
हम तो , वहाँ भी पा गए ,
एक मील का पत्थर ।
विमल ....
पत्थर
तुमको रास न आए ,
मेरे गुलिस्तां के फूल भी ,
हमको अजीज हैं ,
तेरे आँगन का भी पत्थर ।
तिनका -तिनका याद तुम्हारी ,
एक घरोंदा बना गई ।
एहसास तुम्हारे छूने का ,
ज्यों पानी मैं गिरता पत्थर ।
यादों के समुन्दर में ,
खुशबू तेरी आई ।
तूफां के साथ आया ,
तेरे एहसास का पत्थर ।
शीशे के घरोंदों में ,
दीवारें नही होतीं ।
तुम तो तलाशते रहे ,
नींव का पत्थर ।
एहसासों के जंगल में ,
तुमको न मिली पगडण्डी भी ।
हम तो , वहाँ भी पा गए ,
एक मील का पत्थर ।
विमल ....
फ्लैट
फ्लैट
लोहे की सलाखों के बीच
सुरक्षित जीवन का अहसास ,
शुरक्षा कवच को कमर से तोड़कर
बदहवास कर देता है ,
भूस्खलन का झटका ।
झोंपडी में स्वतन्त्र जीवन का आनंद
वनस्पति की दीवारें व् छत
विराटता में ,
जीवन जीने का अद्भुद अनुभव ,
भूस्खलन से सुरक्षित ,
प्रकृति से परिरक्षित ।
परम के समीप
कितने संतुष्ट हैं ,
लोहे की सलाखों के ,
फ्लैट से बाहर
स्वतंत्रता के बोध से ।
विमल ....
लोहे की सलाखों के बीच
सुरक्षित जीवन का अहसास ,
शुरक्षा कवच को कमर से तोड़कर
बदहवास कर देता है ,
भूस्खलन का झटका ।
झोंपडी में स्वतन्त्र जीवन का आनंद
वनस्पति की दीवारें व् छत
विराटता में ,
जीवन जीने का अद्भुद अनुभव ,
भूस्खलन से सुरक्षित ,
प्रकृति से परिरक्षित ।
परम के समीप
कितने संतुष्ट हैं ,
लोहे की सलाखों के ,
फ्लैट से बाहर
स्वतंत्रता के बोध से ।
विमल ....
ठहराव
Sunday, 1 February 2009
ठहराव
गुज़रे ज़माने की सभी यादें
संजो कर रखी हैं इस तरह
जैसे ऑफिस की अलमारी में
बरसों से बंद फाइलों का पैकेट
ड्राइंगरूम की दीवारों पर लगी पेंटिंग
घर के बगीचे में लगा रातरानी का पेड़
यादें कभी दिलाती हैं एहसास
समुद्र में अठखेलियाँ करती लहरों का
चंद्रमा की कलाहों की तरह
अविरल, अविराम, अविराक्त
विमल...
ठहराव
गुज़रे ज़माने की सभी यादें
संजो कर रखी हैं इस तरह
जैसे ऑफिस की अलमारी में
बरसों से बंद फाइलों का पैकेट
ड्राइंगरूम की दीवारों पर लगी पेंटिंग
घर के बगीचे में लगा रातरानी का पेड़
यादें कभी दिलाती हैं एहसास
समुद्र में अठखेलियाँ करती लहरों का
चंद्रमा की कलाहों की तरह
अविरल, अविराम, अविराक्त
विमल...
साक्षात्कार
साक्षात्कार
साक्षात्कार देना ,साक्षात्कार लेना
साक्षात्कार करना
किसी को चाहना , तिरस्कार करना ,
समझना
जैसे स्वावलंबन , स्वाभिमान ,
स्वानुरूपता
जैसे युद्ध करना , युद्ध का आदेश देना ,
समझोता करना ,
जीवन देना , जीवन लेना ,
जीवन दर्शन करना ।
दर्शन करना , दर्शन देना ,
दर्शनाभिलाशी होना
ठीक उसी प्रकार , जैसे
पृथ्वी , आसमान और पवन
एक ही व्यक्ति के बहु
व्यक्तित्व ,
जीवन के अनेक दर्शन ,
समय के साथ बदलते हुए ,
व्यक्ति के साथ बदलते हुए ,
स्थान के साथ बदलते हुए
क्यों ?
स्वयम के द्वारा स्वयं को
छिपाने का असफल प्रयास
या ,
मानसिक मानक का दोगलापन ।
विमल ....
साक्षात्कार देना ,साक्षात्कार लेना
साक्षात्कार करना
किसी को चाहना , तिरस्कार करना ,
समझना
जैसे स्वावलंबन , स्वाभिमान ,
स्वानुरूपता
जैसे युद्ध करना , युद्ध का आदेश देना ,
समझोता करना ,
जीवन देना , जीवन लेना ,
जीवन दर्शन करना ।
दर्शन करना , दर्शन देना ,
दर्शनाभिलाशी होना
ठीक उसी प्रकार , जैसे
पृथ्वी , आसमान और पवन
एक ही व्यक्ति के बहु
व्यक्तित्व ,
जीवन के अनेक दर्शन ,
समय के साथ बदलते हुए ,
व्यक्ति के साथ बदलते हुए ,
स्थान के साथ बदलते हुए
क्यों ?
स्वयम के द्वारा स्वयं को
छिपाने का असफल प्रयास
या ,
मानसिक मानक का दोगलापन ।
विमल ....
बगर्यो बसंत
Friday, 30 January 2009
बसंत
पीली सरसों फूल रही है
महक रही है बगिया ,
ढाक -पलाश की
बूढी डाली , गदराई सी
भई जवान ,
महका महुआ , बिखरा पतझर
पके अनाज
ये हलचल भई
बड़ी निराली है ।
पीली पगड़ी पहने पुत्तु
हुक्के में ,
सुड़का मार रहा है ।
छैल -छबीली , नखरेवाली
छमिया !!
घूँघट छोड़ रही है ,
दूर खेत
प्रियतम से मिलने
साँझ सकारे दौड़ रही है ।
कोई कहे ,
आयो बसंत , छायो बसंत रे ।
पीपल के बिरवा के नीचे
भागीरथ तान लगाय रहो है ,
गाय हमारी ,
तिर्यक देखे ,
पंछी बीन बजाय रहे हैं ।
जित देखो , उत
मदमस्त भये सब ,
कोई कहे , आयो बसंत
कोई कहे , छायो बसंत रे ।
गली -गली , घर -द्वार , चोबारे
पीली चूंदर सूख रही है ,
मन्दिर के वटवृक्ष के नीचे
मुनिया कथा पाठ कर रही ,
पीछे से बच्चों की टोली
पीत पंखुरी उड़ा रही है ।
कोई कह रहा ,
आयो बसंत ,
कोई कहे , मदन छायो है रे ।
बाट जोत रहो ,
कोई रति की
जो बैठ अटरिया ,
इतराय रही है ।
आयो बसंत ,
छायो बसंत ,
बगरयो बसंत है रे ।
रेनू .....
बसंत
पीली सरसों फूल रही है
महक रही है बगिया ,
ढाक -पलाश की
बूढी डाली , गदराई सी
भई जवान ,
महका महुआ , बिखरा पतझर
पके अनाज
ये हलचल भई
बड़ी निराली है ।
पीली पगड़ी पहने पुत्तु
हुक्के में ,
सुड़का मार रहा है ।
छैल -छबीली , नखरेवाली
छमिया !!
घूँघट छोड़ रही है ,
दूर खेत
प्रियतम से मिलने
साँझ सकारे दौड़ रही है ।
कोई कहे ,
आयो बसंत , छायो बसंत रे ।
पीपल के बिरवा के नीचे
भागीरथ तान लगाय रहो है ,
गाय हमारी ,
तिर्यक देखे ,
पंछी बीन बजाय रहे हैं ।
जित देखो , उत
मदमस्त भये सब ,
कोई कहे , आयो बसंत
कोई कहे , छायो बसंत रे ।
गली -गली , घर -द्वार , चोबारे
पीली चूंदर सूख रही है ,
मन्दिर के वटवृक्ष के नीचे
मुनिया कथा पाठ कर रही ,
पीछे से बच्चों की टोली
पीत पंखुरी उड़ा रही है ।
कोई कह रहा ,
आयो बसंत ,
कोई कहे , मदन छायो है रे ।
बाट जोत रहो ,
कोई रति की
जो बैठ अटरिया ,
इतराय रही है ।
आयो बसंत ,
छायो बसंत ,
बगरयो बसंत है रे ।
रेनू .....
पूर्णता
Wednesday, 28 January 2009
पूर्णता
स्वयं ही स्वयं का मित्र होना
स्वयं ही स्वयं का शत्रु होना ,
दिलाता है एहसास
स्वयं की पूर्णता का ।
हर मनुष्य स्वयं में
पूर्ण होकर भी ,
क्यों है इतना अपूर्ण ?
शायद , उत्कट अभिलाषाओं का सैलाव
परिधि के बाहर आने का मन ,
स्वयं की सीमितता का बोध ,
अनुचित इच्छाओं का फैलाव
और ,
तुलनात्मक मानसिकता का विकास
उसे परिचित करता है
अपूर्णता की भावना से ।
अनेक इच्छाओं का पूर्ण होना
आनंदित करता है ।
और , शीघ्र ही उस
आनंद की सीमितता का
बोध होता है ।
कितना क्षण -भंगुर है ,
यह आनंद ,
इस आनंद की मृगतृष्णा का ज्ञान ,
मिटा देता है ,
अज्ञान-का अंधकार
और तब , मनुष्य शुरू करता है
स्वयं मे स्वयं की
पूर्णता की खोज ।
पूर्णता क्या है ?
क्या जान पाओगे उसे ,
बिना जाने अपूर्णता के ।
क्या जानते हो ?
उत्तर तक पहुँचने का मार्ग ,
जो सदैव शुरू होता है
दक्षिण से ।
अगर होना है पूर्ण तो ,
पहले अपूर्णता को समझो ।
तब , जान पाओगे ,
कहाँ से शुरू होती है
जीवन यात्रा ।
विमल ......
पूर्णता
स्वयं ही स्वयं का मित्र होना
स्वयं ही स्वयं का शत्रु होना ,
दिलाता है एहसास
स्वयं की पूर्णता का ।
हर मनुष्य स्वयं में
पूर्ण होकर भी ,
क्यों है इतना अपूर्ण ?
शायद , उत्कट अभिलाषाओं का सैलाव
परिधि के बाहर आने का मन ,
स्वयं की सीमितता का बोध ,
अनुचित इच्छाओं का फैलाव
और ,
तुलनात्मक मानसिकता का विकास
उसे परिचित करता है
अपूर्णता की भावना से ।
अनेक इच्छाओं का पूर्ण होना
आनंदित करता है ।
और , शीघ्र ही उस
आनंद की सीमितता का
बोध होता है ।
कितना क्षण -भंगुर है ,
यह आनंद ,
इस आनंद की मृगतृष्णा का ज्ञान ,
मिटा देता है ,
अज्ञान-का अंधकार
और तब , मनुष्य शुरू करता है
स्वयं मे स्वयं की
पूर्णता की खोज ।
पूर्णता क्या है ?
क्या जान पाओगे उसे ,
बिना जाने अपूर्णता के ।
क्या जानते हो ?
उत्तर तक पहुँचने का मार्ग ,
जो सदैव शुरू होता है
दक्षिण से ।
अगर होना है पूर्ण तो ,
पहले अपूर्णता को समझो ।
तब , जान पाओगे ,
कहाँ से शुरू होती है
जीवन यात्रा ।
विमल ......
चोली के पीछे ......
चोली के पीछे क्या है ?
सारा बचपन जहाँ गुजारा
वो है इस चोली के पीछे ,
नौ माह भ्रूण जहाँ रंग लाया
वो है इस चोली के पीछे ,
जहाँ बहा था जीवन अमृत
वो है इस चोली के पीछे ,
बचपन की हर भूख प्यास का
था रसद इस चोली के पीछे ,
मानवता जहाँ यौवन पाई
वो है इस चोली के पीछे ,
माँ की आन बहन की इज्जत
वो है इस चोली के पीछे ,
चाचा नेहरू जहाँ पले थे
वो है इस चोली के पीछे ,
भगतसिंह जहाँ बढे हुए थे
वो है इस चोली के पीछे ,
आज का यौवन भटक चुका है
सारी बातें भुला चुका है ,
ख़ुद से ही अब पूंछ रहा है
क्या है इस चोली के पीछे ।
भोंडे गाने बजा रहा है
दूध वो माँ का लजा रहा है ,
मर्यादा सब मिटा रहा है
आज उसे वहाँ दिल दीखता है ।
विमल .....
सारा बचपन जहाँ गुजारा
वो है इस चोली के पीछे ,
नौ माह भ्रूण जहाँ रंग लाया
वो है इस चोली के पीछे ,
जहाँ बहा था जीवन अमृत
वो है इस चोली के पीछे ,
बचपन की हर भूख प्यास का
था रसद इस चोली के पीछे ,
मानवता जहाँ यौवन पाई
वो है इस चोली के पीछे ,
माँ की आन बहन की इज्जत
वो है इस चोली के पीछे ,
चाचा नेहरू जहाँ पले थे
वो है इस चोली के पीछे ,
भगतसिंह जहाँ बढे हुए थे
वो है इस चोली के पीछे ,
आज का यौवन भटक चुका है
सारी बातें भुला चुका है ,
ख़ुद से ही अब पूंछ रहा है
क्या है इस चोली के पीछे ।
भोंडे गाने बजा रहा है
दूध वो माँ का लजा रहा है ,
मर्यादा सब मिटा रहा है
आज उसे वहाँ दिल दीखता है ।
विमल .....
स्वप्न
स्वप्न
सावन के महीने में ,
ठंडी हवाओं में ,
झरती फुहारों ,
भीगे से तनमन में ,
सूने से चितवन में ,
गदराये मौसम में
प्रिये याद आती है ।
मन अधूरा तन अधूरा
मैं , अधूरा स्वप्न पूरा ।
पाँव में महावर ,
मेहदी है हाथों में ,
आखों में कजरा ,
गजरा है बालों में ,
चम्पई चितवन है ,
तन मन महकता है ,
होठों पे प्यास है ,
आस है आंखों में , और
चहरे पे चाँद से
घूँघट है छोटा सा ,
आलिंगन प्रियतम का
घेरा है बांहों का ,
होठों पे चुम्बन , बस
ख़ुद अपने आप को
पिया भूल जाता है ,
स्वप्न टूट जाता है ।
रेनू ....
सावन के महीने में ,
ठंडी हवाओं में ,
झरती फुहारों ,
भीगे से तनमन में ,
सूने से चितवन में ,
गदराये मौसम में
प्रिये याद आती है ।
मन अधूरा तन अधूरा
मैं , अधूरा स्वप्न पूरा ।
पाँव में महावर ,
मेहदी है हाथों में ,
आखों में कजरा ,
गजरा है बालों में ,
चम्पई चितवन है ,
तन मन महकता है ,
होठों पे प्यास है ,
आस है आंखों में , और
चहरे पे चाँद से
घूँघट है छोटा सा ,
आलिंगन प्रियतम का
घेरा है बांहों का ,
होठों पे चुम्बन , बस
ख़ुद अपने आप को
पिया भूल जाता है ,
स्वप्न टूट जाता है ।
रेनू ....
बसंत
Monday, 26 January 2009
तब आता है बसंत
फूलों भरी शाख पर
बुलबुल फुदक कर
गाना गाये , तब
आता है बसंत ।
टिल-टिल करती
गिल्लू , डाली -डाली
दौड़ लगाती ,तब
आता है बसंत ।
ऊँचीं फगुनी पर
मटकती हमिंग ,
हवा में पतंगे चुने
तब , आता है बसंत ।
इतराती , इठलाती
दूर तक उड़ती
तितलियाँ ,
फूलों को चूम कर निकलें
तब , आता है बसंत ।
पेड पर अटके
पीले पत्ते
हवा में बिखरें ,तब
आता है बसंत ।
बौराई आम की डालियाँ
भंवरे को बुलाएँ , तब
आता है बसंत ।
सरसों के खेत में
लहराते फूल
सुगंध फैलाकर
मुझे बुलाएँ , तब
आता है बसंत ।
आहट पर पहरा रख
चुपके से प्रीतम
आकर घेर ले , तब
आता है बसंत ।
रेनू ......
तब आता है बसंत
फूलों भरी शाख पर
बुलबुल फुदक कर
गाना गाये , तब
आता है बसंत ।
टिल-टिल करती
गिल्लू , डाली -डाली
दौड़ लगाती ,तब
आता है बसंत ।
ऊँचीं फगुनी पर
मटकती हमिंग ,
हवा में पतंगे चुने
तब , आता है बसंत ।
इतराती , इठलाती
दूर तक उड़ती
तितलियाँ ,
फूलों को चूम कर निकलें
तब , आता है बसंत ।
पेड पर अटके
पीले पत्ते
हवा में बिखरें ,तब
आता है बसंत ।
बौराई आम की डालियाँ
भंवरे को बुलाएँ , तब
आता है बसंत ।
सरसों के खेत में
लहराते फूल
सुगंध फैलाकर
मुझे बुलाएँ , तब
आता है बसंत ।
आहट पर पहरा रख
चुपके से प्रीतम
आकर घेर ले , तब
आता है बसंत ।
रेनू ......
एहसास
Saturday, 24 January 2009
एहसास
वक्त थम जाता है
जब आगोश में
प्रिय हो किसी के
वक्त रुक जाता है
जब आगोश हो
खली प्रिय का
नयन में न सांझ बस्ती
और न अधरों पर सवेरा
जब प्रिय आगोश में हो
सांझ बस जाती नयन में
और अधरों पर सवेरा
जब प्रिय की याद दिल में।
जब प्रिय हो पास दिल के
धडकनों का मूल्य क्या है
धड़कने निर्मूल हैं जब
आगोश हो खली प्रिय का।
सामने बैठी रहो तुम
हर समाया
मधुमास मेरा
हर समाया उपहास मेरा
जब प्रिय तुम दूर मुझसे।
विमल.....
एहसास
वक्त थम जाता है
जब आगोश में
प्रिय हो किसी के
वक्त रुक जाता है
जब आगोश हो
खली प्रिय का
नयन में न सांझ बस्ती
और न अधरों पर सवेरा
जब प्रिय आगोश में हो
सांझ बस जाती नयन में
और अधरों पर सवेरा
जब प्रिय की याद दिल में।
जब प्रिय हो पास दिल के
धडकनों का मूल्य क्या है
धड़कने निर्मूल हैं जब
आगोश हो खली प्रिय का।
सामने बैठी रहो तुम
हर समाया
मधुमास मेरा
हर समाया उपहास मेरा
जब प्रिय तुम दूर मुझसे।
विमल.....
ऐनी
Friday, 23 January 2009
ऐनी
ऐनी बस तुम ही जीवन हो ,
ऐनी बस तुम ही मधुबन हो ,
ऋतुओं में ज्यो ऋतू सावन की,
ऐनी तुम मेरा चितवन हो
तुम थीं हर पल मेरा सावन
सावन में क्यों तुम पतझड़ हो
क्या मुझसे कोई भूल हो गई?
क्यों तू मुझसे दूर हो गई।
सावन मिलें बसंत बहारें,
आयें चारों औरफुहारें,
प्रेमी प्रियतम करें गुहारें,
जलते चितवन में अंगारें,
सारी खुशियाँ चूर हो गईं।
क्यों तू मुझसे दूर हो गई।
ऐनी तू मेरे इस मन में
ऐनी तू मेरे इस तन में
ऐनी तू मेरे चितवन में
लेकिन ये मधुमास है सूना ऐनी नही मेरे सावन में
सावन की ऋतू शूल हो गई
क्यों तू मुझसे दूर हो गई।
ऐनी तुम मेरी आकांक्षा
ऐनी तुम मेरी परिभाषा
ऐनी तुम मेरी जिज्ञासा
ऐनी तुम मेरी अभिलाषा
आशा चकनाचूर हो गई
क्यों तू मुझसे दूर हो गई।
ऐनी तुम क्यों एक निराशा
बिन तेरे मैं एक उदासा
ऐनी तू ज्योति नैनो की
ऐनी तू इस दिल की आशा
ऐनी आजा पास प्रिये के
तू मेरे जीवन की भाषा
ये भाषा निर्मूल हो गई
क्यों तू मुझसे दूर हो गई।
ऐनी तू दिल की धड़कन है
ऐनी तू मेरा मधुवन है
ऐनी इस घर का आँगन है
ऐनी इस मन का सावन है
ऋतू पावन मधुमास आ गई।
ऐनी मेरे पास आ गई।
विमल.....
ऐनी
ऐनी बस तुम ही जीवन हो ,
ऐनी बस तुम ही मधुबन हो ,
ऋतुओं में ज्यो ऋतू सावन की,
ऐनी तुम मेरा चितवन हो
तुम थीं हर पल मेरा सावन
सावन में क्यों तुम पतझड़ हो
क्या मुझसे कोई भूल हो गई?
क्यों तू मुझसे दूर हो गई।
सावन मिलें बसंत बहारें,
आयें चारों औरफुहारें,
प्रेमी प्रियतम करें गुहारें,
जलते चितवन में अंगारें,
सारी खुशियाँ चूर हो गईं।
क्यों तू मुझसे दूर हो गई।
ऐनी तू मेरे इस मन में
ऐनी तू मेरे इस तन में
ऐनी तू मेरे चितवन में
लेकिन ये मधुमास है सूना ऐनी नही मेरे सावन में
सावन की ऋतू शूल हो गई
क्यों तू मुझसे दूर हो गई।
ऐनी तुम मेरी आकांक्षा
ऐनी तुम मेरी परिभाषा
ऐनी तुम मेरी जिज्ञासा
ऐनी तुम मेरी अभिलाषा
आशा चकनाचूर हो गई
क्यों तू मुझसे दूर हो गई।
ऐनी तुम क्यों एक निराशा
बिन तेरे मैं एक उदासा
ऐनी तू ज्योति नैनो की
ऐनी तू इस दिल की आशा
ऐनी आजा पास प्रिये के
तू मेरे जीवन की भाषा
ये भाषा निर्मूल हो गई
क्यों तू मुझसे दूर हो गई।
ऐनी तू दिल की धड़कन है
ऐनी तू मेरा मधुवन है
ऐनी इस घर का आँगन है
ऐनी इस मन का सावन है
ऋतू पावन मधुमास आ गई।
ऐनी मेरे पास आ गई।
विमल.....
तेरे बिना
तेरे बिना
सूनी हैं वादियाँ यहाँ जानम तेरे बिना ,
सूना है जिंदगी का हर मंज़र तेरे बिना ।
समझाएं दिल को किस तरह तेरे बिना यहाँ ,
चलते हैं दिल पै शीत के खंजर तेरे बिना ।
वैसे तो बहुत खूब हैं मौसम के नज़ारे ,
पर कुछ नहीं मुकम्मल मुझको तेरे बिना ।
अस्तित्व बोध होता है मुझे तेरे प्यार में ,
अस्तित्व हीन हो जाता हूँ तेरी याद में ।
कुछ याद नही आता है ये कैसा समां है ,
सब भूल सा जाता हूँ मैं जानम तेरे बिना ।
हुईं तेज धड़कनें कुछ पहुंचकर शेखर पै ,
और डूबता है दिल यहाँ जानम तेरे बिना ।
पंहुचा हूँ बहुत दूर तेरी यादों के सहारे ,
नामुमकिन हो गया है अब चलना तेरे बिना ।
अब तक चला कैसे चला ऐसे चला मैं ज्यों ,
कोई भंवरा भटकता हो किसी पुष्प के बिना ।
अब और न तरसा और न कर जरा सी देर ,
अब जी न सकूँगा मैं , प्रियतम तेरे बिना ।
विमल .......
सूनी हैं वादियाँ यहाँ जानम तेरे बिना ,
सूना है जिंदगी का हर मंज़र तेरे बिना ।
समझाएं दिल को किस तरह तेरे बिना यहाँ ,
चलते हैं दिल पै शीत के खंजर तेरे बिना ।
वैसे तो बहुत खूब हैं मौसम के नज़ारे ,
पर कुछ नहीं मुकम्मल मुझको तेरे बिना ।
अस्तित्व बोध होता है मुझे तेरे प्यार में ,
अस्तित्व हीन हो जाता हूँ तेरी याद में ।
कुछ याद नही आता है ये कैसा समां है ,
सब भूल सा जाता हूँ मैं जानम तेरे बिना ।
हुईं तेज धड़कनें कुछ पहुंचकर शेखर पै ,
और डूबता है दिल यहाँ जानम तेरे बिना ।
पंहुचा हूँ बहुत दूर तेरी यादों के सहारे ,
नामुमकिन हो गया है अब चलना तेरे बिना ।
अब तक चला कैसे चला ऐसे चला मैं ज्यों ,
कोई भंवरा भटकता हो किसी पुष्प के बिना ।
अब और न तरसा और न कर जरा सी देर ,
अब जी न सकूँगा मैं , प्रियतम तेरे बिना ।
विमल .......
शायद
Thursday, 22 January 2009
शायद
वो , मेरे साथ ही होगा
पर , मैं
बिस्तर की सलवटों
में उलझी ,
अथाह पीड़ा को ,
सीने से लगाये ,
थोड़े से पलों को
समेट रही होउंगी ,
वो , मेरा हाथ थामे होगा
पर , मैं
हौले -हौले हथेली
से खिसककर
अंगुली के पोर पर ,
ठहर जाउंगी ,
कुछ और पल
जीने के लिए ।
वो , कभी माथा चूमेगा
और , कभी बिछुड़ने की
बैचेनी में ,
आंसुओं में डूब जाएगा ।
तब , मैं
विराट की चकाचौंध में
धीरे -धीरे विलीन होती
चली जाउंगी ,
घनघोर रात के
सन्नाटे में ,
मैं ,
मुक्त हो जाउंगी ,
शायद !!
रेनू ....
शायद
वो , मेरे साथ ही होगा
पर , मैं
बिस्तर की सलवटों
में उलझी ,
अथाह पीड़ा को ,
सीने से लगाये ,
थोड़े से पलों को
समेट रही होउंगी ,
वो , मेरा हाथ थामे होगा
पर , मैं
हौले -हौले हथेली
से खिसककर
अंगुली के पोर पर ,
ठहर जाउंगी ,
कुछ और पल
जीने के लिए ।
वो , कभी माथा चूमेगा
और , कभी बिछुड़ने की
बैचेनी में ,
आंसुओं में डूब जाएगा ।
तब , मैं
विराट की चकाचौंध में
धीरे -धीरे विलीन होती
चली जाउंगी ,
घनघोर रात के
सन्नाटे में ,
मैं ,
मुक्त हो जाउंगी ,
शायद !!
रेनू ....
उजास
नया उजास
कृष्णपक्ष सा ,
घनघोर अँधेरा
अब छंट गया है ,
दैहिक , भौतिक , मानसिक
संतापों के बाण
टूट चुके हैं ,
मानवीय तन की
अमानवीय सजा
ख़त्म हो चुकी है ।
हौसलों , आशाओं , अभिलाषाओं
की डोर , अब
सूर्य किरण बन रही है ।
नव दिवस की
प्रात: बेला ,
नया उजास फैला रही है ।
विस्मृत होने दो
अतीत को ,
वर्तमान की उज्जवल
धवल , स्वर्णिम
आभा के साथ ,
हम , नई राहें
खोज डालें ,
नए विचार , नई उमंग के साथ
हम , फ़िर से
सत्संग करें , प्राणायाम करें ,
नमन करें ।
रेनू .....
कृष्णपक्ष सा ,
घनघोर अँधेरा
अब छंट गया है ,
दैहिक , भौतिक , मानसिक
संतापों के बाण
टूट चुके हैं ,
मानवीय तन की
अमानवीय सजा
ख़त्म हो चुकी है ।
हौसलों , आशाओं , अभिलाषाओं
की डोर , अब
सूर्य किरण बन रही है ।
नव दिवस की
प्रात: बेला ,
नया उजास फैला रही है ।
विस्मृत होने दो
अतीत को ,
वर्तमान की उज्जवल
धवल , स्वर्णिम
आभा के साथ ,
हम , नई राहें
खोज डालें ,
नए विचार , नई उमंग के साथ
हम , फ़िर से
सत्संग करें , प्राणायाम करें ,
नमन करें ।
रेनू .....
बलिदान
Monday, 19 January 2009
बलिदान
मेरी आंखों में रहे या तेरी आंखों में रहे
हो कहीं भी स्वप्न लेकिन स्वप्न होना चाहिए ।
मेरी धड़कन में नहीं तो तेरी धड़कन में सही
हो कहीं भी याद लेकिन याद होनी चाहिए ।
मेरे दिल में भी रहे और तेरे दिल में भी रहे
हो किसी का दर्द लेकिन दर्द होना चाहिए ।
गर न हो जादा तो थोड़ा -थोड़ा ही सही
हो किसी से प्यार लेकिन प्यार होना चाहिए ।
हो तेरे दिल का जिक्र या वो मेरे दिल की बात हो
प्यार है तो प्यार का इजहार होना चाहिए ।
कर अमर तू चाह अपनी और अपनी चाह मैं
प्यार मैं और जंग मैं बलिदान होना चाहिए ।
विमल ......
बलिदान
मेरी आंखों में रहे या तेरी आंखों में रहे
हो कहीं भी स्वप्न लेकिन स्वप्न होना चाहिए ।
मेरी धड़कन में नहीं तो तेरी धड़कन में सही
हो कहीं भी याद लेकिन याद होनी चाहिए ।
मेरे दिल में भी रहे और तेरे दिल में भी रहे
हो किसी का दर्द लेकिन दर्द होना चाहिए ।
गर न हो जादा तो थोड़ा -थोड़ा ही सही
हो किसी से प्यार लेकिन प्यार होना चाहिए ।
हो तेरे दिल का जिक्र या वो मेरे दिल की बात हो
प्यार है तो प्यार का इजहार होना चाहिए ।
कर अमर तू चाह अपनी और अपनी चाह मैं
प्यार मैं और जंग मैं बलिदान होना चाहिए ।
विमल ......
दूरियां
Sunday, 18 January 2009
दूरियां
दूरी ने दिलाया है , एहसास प्यार का
यादों ने कराया है , एहसास प्यार का ,
तन्हाई का एहसास बदहवास कर गया
बिछोह बन गया है , अब , एहसास प्यार का ।
पलकों में स्वप्न तेरे , आंखों में चाह तेरी
सोने भी नही देता है , एहसास प्यार का ,
सांसों में तेरे बालों की , खुशबू सी बसी है ,
मरने भी नही देता है एहसास प्यार का ।
जब तक यहाँ पर , तुम थीं
तब तक तो , ये नही था ।
जब तुम गईं , यहाँ से
तब से ही दिल को लगता
जैसे मैं बिल्कुल तनहा
जैसे मैं बिल्कुल वीरान
दिल मेरा ये कहता
और साँसे मेरी कहतीं
इसको ही कहते हैं
इजहार प्यार का ,
इसको ही कहते हैं ,
एहसास प्यार का ।
विमल .....
दूरियां
दूरी ने दिलाया है , एहसास प्यार का
यादों ने कराया है , एहसास प्यार का ,
तन्हाई का एहसास बदहवास कर गया
बिछोह बन गया है , अब , एहसास प्यार का ।
पलकों में स्वप्न तेरे , आंखों में चाह तेरी
सोने भी नही देता है , एहसास प्यार का ,
सांसों में तेरे बालों की , खुशबू सी बसी है ,
मरने भी नही देता है एहसास प्यार का ।
जब तक यहाँ पर , तुम थीं
तब तक तो , ये नही था ।
जब तुम गईं , यहाँ से
तब से ही दिल को लगता
जैसे मैं बिल्कुल तनहा
जैसे मैं बिल्कुल वीरान
दिल मेरा ये कहता
और साँसे मेरी कहतीं
इसको ही कहते हैं
इजहार प्यार का ,
इसको ही कहते हैं ,
एहसास प्यार का ।
विमल .....
प्यार तुम्हारा प्रीत तुम्हारी
Saturday, 17 January 2009
प्यार तुम्हारा प्रीत तुम्हारी
तनहा राहें तनहा राही
शाम सुहानी याद पुरानी ,
मीठी -मीठी प्यारी -प्यारी
सूनेपन को चीर रही थी ,
जैसे कोई किरण आशा की
इस निराश जीवन में आए ,
प्यार तुम्हारा , प्रीत तुम्हारी
जख्म तुम्हारा , दवा तुम्हारी
देखा अम्बर भीगा मौसम
मचल गया दिल
जख्म कर गई ,
याद तुम्हारी , चाह तुम्हारी
प्यार तुम्हारा , प्रीत तुम्हारी ।
जैसे नींद आंख के अन्दर
याद तुम्हारी दिल के अन्दर ,
प्रीत तुम्हारी मन के अन्दर
दर्द तुम्हारा तन के अन्दर ।
और मैं , उन तनहा राहों पर
कड़ी धूप में , जले रेत में
प्यार तुम्हारा ठंडक जैसा ,
याद तुम्हारी साये जैसी ,
प्रीत तुम्हारी बारिश जैसी
जला रही थी दिल को मेरे ,
मन को घेरे , तन को मेरे ।
और है जबसे , तनहा जीवन
फंसा हुआ हूँ , एक भंवर में
इस समुद्र की एक लहर में
तभी अचानक तूफ़ान आया
और साथ में लाया अपने
प्यार तुम्हारा नौका जैसा ,
याद तुम्हारी साहिल जैसी ,
प्रीत तुम्हारी ढाढस जैसी ,
लगा रही थी मुझे किनारे ,
तभी तुम्हारे आँचल से
फ़िर लिपट गया मैं ,
और चल दिया
साथ तुम्हारे
पीछे छोडे ,
तनहा जीवन
सूनसान राहें,
वीरान मंजिल ।
विमल ......
प्यार तुम्हारा प्रीत तुम्हारी
तनहा राहें तनहा राही
शाम सुहानी याद पुरानी ,
मीठी -मीठी प्यारी -प्यारी
सूनेपन को चीर रही थी ,
जैसे कोई किरण आशा की
इस निराश जीवन में आए ,
प्यार तुम्हारा , प्रीत तुम्हारी
जख्म तुम्हारा , दवा तुम्हारी
देखा अम्बर भीगा मौसम
मचल गया दिल
जख्म कर गई ,
याद तुम्हारी , चाह तुम्हारी
प्यार तुम्हारा , प्रीत तुम्हारी ।
जैसे नींद आंख के अन्दर
याद तुम्हारी दिल के अन्दर ,
प्रीत तुम्हारी मन के अन्दर
दर्द तुम्हारा तन के अन्दर ।
और मैं , उन तनहा राहों पर
कड़ी धूप में , जले रेत में
प्यार तुम्हारा ठंडक जैसा ,
याद तुम्हारी साये जैसी ,
प्रीत तुम्हारी बारिश जैसी
जला रही थी दिल को मेरे ,
मन को घेरे , तन को मेरे ।
और है जबसे , तनहा जीवन
फंसा हुआ हूँ , एक भंवर में
इस समुद्र की एक लहर में
तभी अचानक तूफ़ान आया
और साथ में लाया अपने
प्यार तुम्हारा नौका जैसा ,
याद तुम्हारी साहिल जैसी ,
प्रीत तुम्हारी ढाढस जैसी ,
लगा रही थी मुझे किनारे ,
तभी तुम्हारे आँचल से
फ़िर लिपट गया मैं ,
और चल दिया
साथ तुम्हारे
पीछे छोडे ,
तनहा जीवन
सूनसान राहें,
वीरान मंजिल ।
विमल ......
जीवन मृत्यु
जीवन-मृत्यु
जीवन -मृत्यु
बचपन ,
जीवन को जानने की जिज्ञासा
एक निरंतर प्रक्रिया
संतुष्ट ।
जवानी ,
जीवन को जीने की भूख
एक असफल प्रयास
असंतुष्ट ।
बुढापा ,
भय , मृत्यु से समीपता का
एक सतत सत्य
भ्रमित ।
जीवन ,
सत्य को जानने का माध्यम
एक लौकिक अवसर
सारगर्भित ।
विमल .....
जीवन -मृत्यु
बचपन ,
जीवन को जानने की जिज्ञासा
एक निरंतर प्रक्रिया
संतुष्ट ।
जवानी ,
जीवन को जीने की भूख
एक असफल प्रयास
असंतुष्ट ।
बुढापा ,
भय , मृत्यु से समीपता का
एक सतत सत्य
भ्रमित ।
जीवन ,
सत्य को जानने का माध्यम
एक लौकिक अवसर
सारगर्भित ।
विमल .....
असीमित सा
Friday, 16 January 2009
असीमित सा
एकटक देख रही थी
उसे ,
अभी -अभी
शबनम मैं नहाया सा
लग रहा था ।
देह की गंध
खींच रही थी , मुझे
उसकी बांहों के बीच ,
दिल की तहों मैं
जाने क्या स्पंदित सा हुआ ।
सिमटकर ,
बिखर गई , वहीं ।
उसकी सांसे
समां रही थीं
मेरी सांसों के आर -पार ।
एक नशा सा छा रहा था
हौले -हौले ,
वो , जड़ हो जाना
चाहता था , वहीं की वहीं
पर ,
गार्ड की , हरी झंडी ने
मुझे विवश कर दिया ।
उसकी , हथेली को चूम कर
मैं , ओझल हो गई ।
वह , मुझमें
असीमित सा समाकर
सीमा पर
चला गया ।
रेनू शर्मा .....
असीमित सा
एकटक देख रही थी
उसे ,
अभी -अभी
शबनम मैं नहाया सा
लग रहा था ।
देह की गंध
खींच रही थी , मुझे
उसकी बांहों के बीच ,
दिल की तहों मैं
जाने क्या स्पंदित सा हुआ ।
सिमटकर ,
बिखर गई , वहीं ।
उसकी सांसे
समां रही थीं
मेरी सांसों के आर -पार ।
एक नशा सा छा रहा था
हौले -हौले ,
वो , जड़ हो जाना
चाहता था , वहीं की वहीं
पर ,
गार्ड की , हरी झंडी ने
मुझे विवश कर दिया ।
उसकी , हथेली को चूम कर
मैं , ओझल हो गई ।
वह , मुझमें
असीमित सा समाकर
सीमा पर
चला गया ।
रेनू शर्मा .....
कल्पना
Sunday, 11 January 2009
करुँ कल्पना उस दिन की
करुँ कल्पना उस दिन की ,जब नेता बन जाऊंगा काम करूँ नही दो कौडी का , अरबों नोट कमाऊंगा ।
नोट पड़े गिनती पर भारी , कहाँ तक गिने मशीन बेचारी
सिस्टम खोखा -पेटी का , तब लागू करवाऊंगा ।
जब नेता बन जाऊंगा .....
पहला जनता करे सबाल , कैसे हैं बिजली के हाल
जनता को ऐसे चकाराऊ , पनचक्की की तरह घुमाऊ ।
करुँ आंकडे बाजी ऐसे , बिजली का प्रोफेसर जैसे
किलोवाट और मेगावाट में, फर्क उसे में समझाऊ ।
जब नेता बन जाऊंगा ....
दूजा मुद्दा मद्यनिषेध , ये मुद्दा नही अधिक विशेष
मद्य निषेध का प्रचार कराऊं, नित्य शाम को बार में जाऊँ ।
जमकर पीउं डेढ़ बजे तक , दिन में सौऊँ धूप चढे तक
दो अक्टूबर सुबह छ : बजे , राजघाट पर जाऊंगा
आँख मूँद कर रघुपति राघव गाऊंगा।
जब नेता बन जाऊंगा .....
तीजा है कानून व्यवस्था , ढीली ढाली लचर अवस्था
हिन्दू ,मुस्लिम ,सिक्ख , isaai , में इनका पेटेंट कसाई ।
विष घोलूँ अफवाह फैलाऊं , और दंगे करवाऊंगा
जब हालत बेकाबू हो जायें , तब करफू लगवाऊंगा
जिम्मेदारी डाल किसी पर , उसकी बलि चढाऊंगा ।
जब नेता बन जाऊंगा .....
चोथा है सामाजिक न्याय , सहना होगा अब अन्याय
पढ़े - लिखे और मध्यम शहरी , इस राज से उखड जायेंगे ,
चोर उचक्के , भू माफिया , तस्कर संरक्षण पाएंगे ।
पावडर पीने वाले मुजरिम , बिना जमानत छूट जायेंगे
महिलाओं की चेन लूट , आजाद घूमते मिल जायेंगे
भला आदमी जहाँ दिखा , मैं वहीं चालान बनाऊंगा ।
जब नेता बन जाऊंगा ......
पंचम मुद्दा है मंहगाई , कहते हैं दिल्ली से आई
चटनी रोटी मिल जायेगी , दुगना मूल्य चुकाना होगा
जिसने नाम लिया सब्जी का , उस पर तो जुरमाना होगा
घी सूंघना चाहोगे तो , पैन कार्ड दिखलाना होगा
खुली हवा और खिली धूप पर , भारी टैक्स लगवाऊंगा ।
जब नेता बन जाऊंगा .....
छटवां है स्वास्थ्य बीमारी , जिम्मेदारी नही हमारी
सर्दी और जुकाम का हौवा , दूर करेगा बस एक पौवा
गला यदि करना हो साफ़ , नित्यप्रति तुम लेना हाफ
कभी सताए यदि फुल टेंशन , फुल ही दूर करेगा टेंशन
कैंसर ,एड्स नही बीमारी , जिम्मेदारी नही सरकारी
इन्हें दवा की नही जरूरत , जान बचायेगी बस जानकारी
फर्जी बिल बैनर -पोस्टर पर , पूरा बजट लुटाऊंगा
जब नेता बन जाऊंगा ......
काली चरण .....उपयंत्री लो .नि .वि .
करुँ कल्पना उस दिन की
करुँ कल्पना उस दिन की ,जब नेता बन जाऊंगा काम करूँ नही दो कौडी का , अरबों नोट कमाऊंगा ।
नोट पड़े गिनती पर भारी , कहाँ तक गिने मशीन बेचारी
सिस्टम खोखा -पेटी का , तब लागू करवाऊंगा ।
जब नेता बन जाऊंगा .....
पहला जनता करे सबाल , कैसे हैं बिजली के हाल
जनता को ऐसे चकाराऊ , पनचक्की की तरह घुमाऊ ।
करुँ आंकडे बाजी ऐसे , बिजली का प्रोफेसर जैसे
किलोवाट और मेगावाट में, फर्क उसे में समझाऊ ।
जब नेता बन जाऊंगा ....
दूजा मुद्दा मद्यनिषेध , ये मुद्दा नही अधिक विशेष
मद्य निषेध का प्रचार कराऊं, नित्य शाम को बार में जाऊँ ।
जमकर पीउं डेढ़ बजे तक , दिन में सौऊँ धूप चढे तक
दो अक्टूबर सुबह छ : बजे , राजघाट पर जाऊंगा
आँख मूँद कर रघुपति राघव गाऊंगा।
जब नेता बन जाऊंगा .....
तीजा है कानून व्यवस्था , ढीली ढाली लचर अवस्था
हिन्दू ,मुस्लिम ,सिक्ख , isaai , में इनका पेटेंट कसाई ।
विष घोलूँ अफवाह फैलाऊं , और दंगे करवाऊंगा
जब हालत बेकाबू हो जायें , तब करफू लगवाऊंगा
जिम्मेदारी डाल किसी पर , उसकी बलि चढाऊंगा ।
जब नेता बन जाऊंगा .....
चोथा है सामाजिक न्याय , सहना होगा अब अन्याय
पढ़े - लिखे और मध्यम शहरी , इस राज से उखड जायेंगे ,
चोर उचक्के , भू माफिया , तस्कर संरक्षण पाएंगे ।
पावडर पीने वाले मुजरिम , बिना जमानत छूट जायेंगे
महिलाओं की चेन लूट , आजाद घूमते मिल जायेंगे
भला आदमी जहाँ दिखा , मैं वहीं चालान बनाऊंगा ।
जब नेता बन जाऊंगा ......
पंचम मुद्दा है मंहगाई , कहते हैं दिल्ली से आई
चटनी रोटी मिल जायेगी , दुगना मूल्य चुकाना होगा
जिसने नाम लिया सब्जी का , उस पर तो जुरमाना होगा
घी सूंघना चाहोगे तो , पैन कार्ड दिखलाना होगा
खुली हवा और खिली धूप पर , भारी टैक्स लगवाऊंगा ।
जब नेता बन जाऊंगा .....
छटवां है स्वास्थ्य बीमारी , जिम्मेदारी नही हमारी
सर्दी और जुकाम का हौवा , दूर करेगा बस एक पौवा
गला यदि करना हो साफ़ , नित्यप्रति तुम लेना हाफ
कभी सताए यदि फुल टेंशन , फुल ही दूर करेगा टेंशन
कैंसर ,एड्स नही बीमारी , जिम्मेदारी नही सरकारी
इन्हें दवा की नही जरूरत , जान बचायेगी बस जानकारी
फर्जी बिल बैनर -पोस्टर पर , पूरा बजट लुटाऊंगा
जब नेता बन जाऊंगा ......
काली चरण .....उपयंत्री लो .नि .वि .
पथिक
Saturday, 3 January 2009
पथिक
ओ , जीवन पथ पर चलने वाले पथिक !! देख रहे हो इस पथ पर बिखरी धूल ve हैं , जो तुमसे पहले आकर चले गए , ये निशानी उन्हीं की हैं इसी पर आगे जाने वालों के बनते हैं " पद - चिन्ह " मत घबराओ कि लक्ष्य तक नही पहुँच पाओगे । मत हों उदास कि लक्ष्य है दूर , याद रखो !!! तुम्हारे हर उठे , कदम के साथ , होगा तुम्हारा लक्ष्य , उतना ही निकट । पथिक !!! न रुको , चलते रहो , रुक गए तो , मिल जाओगे इस धूल मैं , तुम चलो , चले चलो , छोड़कर ""पदचिन्ह "" चलते रहो , चलते रहो । तब समझ पाओगे , पथ ही बन गया है , लक्ष्य तुम्हारा । मत रुकना , कितने ही पुकारेंगे पीछे से तुम्हें । तुम चलते ही जाना । पीछे मुड़कर देखा तो , खा जाओगे ठोकर , गिरोगे इसी धूल मैं । रखना दृष्टि सामने क्षितिज पर , उसे छू लेना ही तो है , लक्ष्य तुम्हारा । जब भी , पा जाओगे अपना लक्ष्य , समझ लो , तब ही स्वयं को भी पा जाओगे , " पथिक "" शैलेन्द्र शर्मा .......
पथिक
ओ , जीवन पथ पर चलने वाले पथिक !! देख रहे हो इस पथ पर बिखरी धूल ve हैं , जो तुमसे पहले आकर चले गए , ये निशानी उन्हीं की हैं इसी पर आगे जाने वालों के बनते हैं " पद - चिन्ह " मत घबराओ कि लक्ष्य तक नही पहुँच पाओगे । मत हों उदास कि लक्ष्य है दूर , याद रखो !!! तुम्हारे हर उठे , कदम के साथ , होगा तुम्हारा लक्ष्य , उतना ही निकट । पथिक !!! न रुको , चलते रहो , रुक गए तो , मिल जाओगे इस धूल मैं , तुम चलो , चले चलो , छोड़कर ""पदचिन्ह "" चलते रहो , चलते रहो । तब समझ पाओगे , पथ ही बन गया है , लक्ष्य तुम्हारा । मत रुकना , कितने ही पुकारेंगे पीछे से तुम्हें । तुम चलते ही जाना । पीछे मुड़कर देखा तो , खा जाओगे ठोकर , गिरोगे इसी धूल मैं । रखना दृष्टि सामने क्षितिज पर , उसे छू लेना ही तो है , लक्ष्य तुम्हारा । जब भी , पा जाओगे अपना लक्ष्य , समझ लो , तब ही स्वयं को भी पा जाओगे , " पथिक "" शैलेन्द्र शर्मा .......
२००८ की post
उत्तरदाई
सच्चाई , ईमानदारी
सम्मान , साहस एवं
संस्कार
शरीर मैं आत्मा से
लिपट जाते हैं ,
फ़िर भी ,
भागम -भाग राहों पर
ठिठक जाते हैं कदम ,
रुक जाते हैं हाथ ,
काँप जाते हैं होंठ ,
झुक जाती है नज़रें
सिमट जाता है वदन
जब ,
अर्धनग्न स्त्री
निकलती है , झुरमुट से ।
हजारों निगाहें छेड़ती हैं
उसका शरीर , संस्कार ,
आत्मा और
लोग धिक्कारते हैं ,
बुजुर्गों को ,
पर , आजादी की दीवानी
स्वयम ही नीलाम होती है ,
सड़कों पर ।
अपनों का मान ,
वंश का सम्मान ,
संस्कारों का प्रत्यावर्तन ,
पतित होता है ।
कौन है , उत्तरदाई ????
रेनू शर्मा .....
Posted by Renu Sharma at 02:20
Friday, 19 December 2008
शिकार
सूने पड़े मकान से अचानक , आधीरात एक चीख उठी । वीराने मैं फैलती चीख बंगले के चोकीदार तक पहुँची कान चौकस हुए हो , न , हो , कोई नावालिग़ होगी । पौ फटते ही , साहब पूंछ बैठे , बगल वाले बंगले पर कौन साब हैं ? साब ! पता कर बताता हूँ , आज फ़िर कांच टूटने की झनझनाहट दूर तक फ़ैल गई । चौकीदार चोकन्ना हुआ , रात भर जागता रहा । तीसरे पहर मैं अपने साहब को , अन्दर जाते देखा । अरे !!! क्या बबाल है , तभी तो , अपने साब बच्चों को विदेशमैं शिक्षित करते हैं , पत्नी को दूसरे शहर मैं नौकरी कराते हैं दूसरे की बेटियों को शिकार बनाते हैं ।
रेनू शर्मा .......
Posted by Renu Sharma at 05:32
Friday, 12 December 2008
कासे कहूं
ये हवाएं निगोडी !!सुनतीं ही नहीं , सुनातीं हैं , अपना ही राग । कभी यहाँ , कभी वहाँ उडातीं हैं मेरा मन । दूर ले जातीं हैं मुझे , बार - बार रूककर कुछ कहना चाहती हूँ , हवाएं , मुस्करा जातीं हैं , पलक झपकते ही और कहीं , पहुँचा देतीं हैं । ये नदिया , ये झरने सुनते ही नहीं मेरी बात सुनाते हैं अपना ही कलरव , कभी इस डगर , कभी उस डगर नगर , गाँव , पनघट घुमातें हैं मुझे , कुछ बोलना चाहती हूँ , पर , वादियाँ , बहारें अटखेलियाँ करते हैं । शंख , सीपी उलझाते हैं मुझे । दुखवा कासे कहूं ? रेनू विमल ........
Posted by Renu Sharma at 03:38
पतंग सी
नील गगन मैं उड़ती पतंग सी मैं , पंख हीन सी हो , रेगिस्तान मैं जा गिरी , पानी की बूँद , कण -कण मैं टटोलती रही । एक कतरा बादल का आकाश मैं , तलाशती रही । मीलों दूर पहाडी से आया रेत का सैलाब उडा ले गया , तिनका भी न उलझा सका । समाती गई , गहरे सागर मैं कैसी , तृष्णा थी ? बुझा न सकी । रेनू विमल .......
Posted by Renu Sharma at 03:00
छलिया
पुरूष !! तुम छलिया हो ,
प्रेम पगी बातों से
आकर्षण मैं बाँध
वश मैं करते हो ।
अंतर्मन की पीड़ा को
मदिरा की कडुवाहट मैं
डुबो कर ,
पौरुष का तांडव
दिखाकर ,
पुरूष बनना चाहते हो ,
हे ! निष्ठुर !!
तुम , नारी भावनाओं का
उसके विश्वास का
उसके प्रेम का
बलात हरण करते हो ।
हे ! कायर !!
तुम , उसके मान
उसके प्यार
उसकी आत्मा को
हरक्षण ठगते हो ।
तुम , छलिया हो । रेनू विमल .......
Posted by Renu Sharma at 02:20
फर्क
विचारों के चलचित्र मैं खोई , वह सुख - दुःख , रास - रंग जाने क्या - क्या भोग रही थी , अचानक ! किसी ने झकझोर दिया । बोली ... कल नही आ सकी दारु पीकर , मारा बाल खीचे और गर्दन धुमा दी , लात मारकर गिरा दिया रात भर रोती रही क्षमा करना बाई साब !! वह , निश्तब्ध सोचती रही यह , प्रतिदिन पति के हिसाब से गिरती है और उठती है , और वह भी । फ़िर , इसमें , उसमें क्या फर्क ?? रेनू विमल ......
Posted by Renu Sharma at 02:01
मोह भंग
कभी आजादी चाहती हूँ ,
कभी बंध जाना चाहती हूँ
अटूट बंधन मैं ।
कभी जब , सामंजस्य चाहती हूँ
डूब जाना चाहती हूँ
तब , छल होता है ,
निश्छल प्रेम के साथ ।
मुझसे बंधने का भ्रम पाले
तुम !! उपहास करते हो ,
रिश्तों के इर्द - गिर्द
तुम ही , शायद अपने हो ।
प्रेम -पाश मैं बंधी मैं ,
हर बार लडखडा जाती हूँ ,
उस भोर का इंतजार है ,
जब , बंधन अटूट होगा ,
या , होगा मोहभंग ।
रेनू विमल ......
Posted by Renu Sharma at 01:33
Tuesday, 2 December 2008
मेरी मां
एक शहीद का मां को नमन मां , से नज़रें मिलीं तो , कम्पित हो रहीं थीं उसकी पलकें , एकटक निहार रही थी मेरे ललाट को , उसका कलेजा फटा जा रहा था , होंठ लरज रहे थे , उंगलियाँ कांप रहीं थीं , ठंडे , नाजुक हाथों से मेरा चेहरा सीने मैं छुपा लिया , उसकी धड़कन बेकाबू थी । मेरी मां , पिंजरे के पंछी सी फड फड़ा रही थी , फ़िर भी ....... मेरी पेशानी चूमते हुए , बोली ....... बेटा !! वापस आ जाना । मैं , मां के क़दमों पर झुक गया , तो पीछे हट गई , तू , भू देवी को प्रणाम कर , वतन के रखवाले धरती के बेटे होतें हैं , तू , मेरे सीने मैं समाया है , मेरी नजरें तुझसे ही रौशन हैं , और .... धीरे - धीरे मेरी आंखों के सहारे मां , मुझमें प्रवाहित हो गई । अब , मैं , अचानक शहीद हो गया हूँ , मेरी आँखें बंद मत करो मां , उनमें बसती है । प्रकम्पित दीये की लौ ,सी मेरी मां मुझमें , अमर है ..... रेनू शर्मा .......
Posted by Renu Sharma at 05:42
Sunday, 23 November 2008
यादें जिन्दा हैं
कमरे के अन्दर ,
परदे के किनारे ,
दरवाजे की ओट मैं ,
अलमारी की दराज मैं ,
किताबों के बीच मैं ,
अखबार के नीचे ,
पुराने कार्ड के अन्दर ,
डायरी के पीछे ,
पैन के ढक्कन मैं ,
कम्पास के साथ
मेरी यादें जिन्दा हैं ।
बहन के बालों मैं ,
भाई के गालों पर
मां के हाथों मैं ,
पापा की आंखों मैं ,
सखी की बातों मैं ,
दोस्तों के खेल मैं
खेल की शैतानी मैं ,
मेरी यादें जिन्दा हैं ।
धक्का - मुक्की की पेल मैं
छिना - झपटी की रेल मैं ,
चप्पल छुपाने मैं ,
परफ्यूम लगाने मैं ,
नोट्स चुरा कर पढने मैं ,
घर से उडी लगाने मैं ,
पढ़ाई से जी चुराने मैं ,
मां की डांट खाने मैं ,
मेरी यादें जिन्दा हैं ।
चूल्हे की राख मैं ,
दादी की बीडी मैं ,
पुराने संदूक मैं ,
गुड की चिक्की मैं ,
आम के आचार मैं ,
बासी पूडी मैं ,
मेरी यादें जिन्दा हैं ।
नीम के नीचे ,
पत्थर की पाटिया पर ,
पडौसी की दीवार पर ,
छत की मुडेर पर ,
बरसात के पानी मैं ,
ठंडी हवाओं मैं ,
टपकती बूंदों मैं ,
झरते पत्तों मैं ,
माटी की गंध मैं ,
उड़ती पतंग मैं ,
कंचे के खेल मैं ,
गुडिया की शादी मैं
मेरी यादें जिन्दा हैं ।
खेत की मैड पर ,
कीडों के बिल मैं ,
गुबरैलों की दौड़ मैं ,
झींगुर की झंकार मैं ,
चिडिया के गीत मैं ,
भंवरे के राग मैं ,
फूलों की महक मैं ,
गाय के रंभाने मैं ,
गिलहरी के उछलने मैं
पुराहे से पानी खीचने मैं ,
बैल हांकने मैं ,
गन्ने का रस पीने मैं ,
ककडी चुराने मैं ,
चना मिर्च खाने मैं ,
मेरी यादें जिन्दा हैं ।
होली के रंग मैं ,
दिए की जोत मैं ,
राखी की डोर मैं ,
मीठे बताशे मैं ,
रिक्शे की सवारी मैं ,
चुस्की की ठंडक मैं ,
ताज की छांव मैं
मां की बिदाई मैं ,
पीहर के छूटने मैं
मेरी यादें जिन्दा हैं ।
रेनू शर्मा .......
Posted by Renu Sharma at 01:52
Friday, 21 November 2008
पोल का ढोल
बिकता है यहाँ , हर माल सस्ता । दरोगा बाबु , सिपाही अनमोल है , ऑफिस का चपरासी , क्लर्क और साहब बेमोल हैं , यह दुनिया , ढोल का पोल है । बिकता है यहाँ , हर माल सस्ता अस्पताल का स्वीपर ,स्टोरकीपर सिस्टर और डॉक्टर सब , बे भाव , हैं । ठेकेदार के लेवर , इंजी ..... और सुपरवाईजर थोक के भाव हैं । यह दुनिया , पोल का ढोल है , बिकता है यहाँ सब सस्ता । नेता , कार्यकर्ता , बिधायक और मंत्री सब पार्टी हित मैं , घूंस बटोरने मैं , पारंगत हैं सब , ढोल मैं पोल है , बिकता है यहाँ , हर माल सस्ता ..... रेनू ........
Posted by Renu Sharma at 03:45
चुनाव के दिन
चुनाव के दिनों मैं काले धन के नाले उफान लेंगे , व्यस्तता का बाजार गर्म होगा , भाषणों की नर्सरी से पौध उठेगी , उन्हें ढूँढा जाएगा , जो काम ढूंढते हैं , निकलेंगी सवारियां हर तरफ़ शोर होगा शान्ति रथों का , गलियों मुहल्लों ,मैं रोटी - सब्जी के पैकेट मुफ्त बाटेंगे , वादों और आश्वासनों की गूँज सब और होगी , कीर्तिमानों का अखंड पाठ चलता रहेगा , आकाश तले , धरती ओड़ने वाले मुंह तकते रहेंगे , यहाँ काजू - किसमिस के नास्ते वहाँ , फांके कई दिनों के , चलता रहेगा सफर , यूँ ही , बेखबर ........... रेनू शर्मा ........
Posted by Renu Sharma at 00:47
Tuesday, 18 November 2008
दोहन
वह , आरोपित करता है , अपने , कु - विचार , कु - भाव , कु - आकान्छाएं , कु - स्वपन और कु - मार्ग । साहस नहीं कि , कह सके , सारी चाहतें मेरी हैं , क्यों ? उस पर लादता है , अपनी दुष्प्रवृतियों को , क्या इसीलिए , वह गणित लगता रहता है , वह , शून्य पर ठहर जाती है , वहाँ से ,नई उर्जा प्रदीप्त हो उठती है , पुन : दोहन के लिए ..... रेनू .......
Posted by Renu Sharma at 00:58
जिन्दगी
निश्छल भावों , विचारों पर आघात करते द्वन्द , चहरे पर चस्पा हो जाते हैं , जिन्दगी की जद्दोजहत , आदर्शों को खोखला कर , कबसे ठहर सी गई है , चाँद सिक्कों की खनक से , जिन्दगी दौड़ लगाती सी , लगती है । सनातन नियम , कलियुग मैं , बेज्जत होते हैं , कशमकश भरी जिंदगी , कलयुगी भावों , विचारों पर ही , सपाट भागती है , नहीं पता हम , क्या खो रहें हैं , क्या पा रहें हैं ? रेनू .......
Posted by Renu Sharma at 00:50
Monday, 3 November 2008
अच्छा होता
क्या , अच्छा होता खुले आकाश पर आँगन होता , बादलों पर , मेरा घर । सूने अन्तरिक्ष मैं , मेरा आरामगाह होता , क्या अच्छा होता । तारों से दोस्ती होती , चंदा से याराना , गुरु होते सूरज , नक्षत्र होते पड़ोसी , क्या अच्छा होता । पहाडों पर प्रार्थना घर होता , समंदर मैं स्नान घर , हरियाली से नाता होता , हवाओं से रिश्ता होता , पंछियों से हलो - हाय होती क्या अच्छा होता । रेनू .......
Posted by Renu Sharma at 03:14
अपनापन
जाने कहाँ खो गया , खोजती रही , गलियों मैं , घर , आँगन , और दिल मैं । अल्हड़पन की बेअद्वी , शरारत , अटखेली और निश्छल प्रेम तलाशती रही मैं , छत मैं , मुडेर और अटारी पर । बिंदासपन का भोलापन , चंचलता और शोखी , निहारती रही मैं , बादलों मैं , हवाओं , लताओं और कुंजों मैं , अपनेपन का नशा , पहचानती रही , हर नज़र , बांहों , चुम्बन ,और स्पर्श मैं ....... रेनू ....
Posted by Renu Sharma at 03:02
नाग - फनी
किंकर्तव्य विमूड सी मैं , शून्य मैं तुम्हें ही , पुकारती रही , दूर - दूर तक कोई , आहट न थी , मेरे चारो तरफ़ नागफनी बढ रहे थे , मैं , बिचलित हो , उन बेरहम , काँटों से क्षमा की भीख मांगती रही पूरा जिस्म लहूलुहान था प्रीत का मरहम लिए , मेरा साथी ,बहुत दूर खुशबू तलाश रहा था वीराने मैं लाश बनी , मैं , तुम्हें ही , बुलाती रही मुझे काँटों मैं फंसा देख , मेरा साया भी दूर हो गया , तीक्ष्णता की बौछार , जीवन पथ बींधने लगी , घायल कपोती सी , मैं , घोंसले तक आ पड़ी , नाजुक सी चोंच खोले शिशुओं को देख , नीड़ को सहेजने का प्रयास करने लगी , दूर क्षितिज पर फैली लालिमा खीचने लगी , फ़िर से चहकने का उपक्रम कर , मैं नील गगन मैं विहार करती रही नागफनी मैं गुलाब , की कल्पना लिए । रेनू .... को
Posted by Renu Sharma at 02:38
मृग - तृष्णा
शैशव मैं , मृगी बन क्षितिज छू लेने को मन बनाया था , इठलाती , बलखाती उछलती , कूदती मैं , सरपट दौड़ रही थी , अचानक एक डोर गले मैं कस गई , मैं , आगे पग बढाकर भी बहुत पीछे गिर गई , सांसारिक मायाजाल मैं , उलझ कर रह गई , मानसिक स्वछंदता के लिए प्रयास करती रही , सोचती थी कभी तो , क्षितिज को छूने का , गौरव पाउंगी तब , क्षितिज की दूरी का उसकी गहनता का आभास न था , एक , ललक थी परचम लहराने की , चांदनी रेत पर , जल का भ्रम पाले , मृग तृष्णा , एक दिन , क्षितिज के पार अवश्य लेकर जायेगी ..... रेनू .....
Posted by Renu Sharma at 02:24
Wednesday, 29 October 2008
दादी का पिटारा
बचपन मैं दादी के सामने
छोटा सा हाथ
खुल जाता था , चीनी के चंद
दानो के लिए ,
पुराणी लकड़ी का बक्सा ,
पीली पड़ चुकी मिठाइयों का
खजाना था ,
टोपी , स्वाफी का स्टोर
एक तिलिस्म सा फैलता
जादू का पिटारा था ।
बूरा , चीनी , गाय का घी , बतासे
किसी की शादी के बचे उपहार थे ।
एक पोटली मैं पिसा सत्तू
भुने चने , लाइ , चिडवा
महीनों तक खत्म न होने वाला
नास्ता था ,
आज जब , रसोई मैं जाती हूँ ,
बेटी दौड़ कर आती है ,
नन्हा सा मुंह खोल देती है ,
चीनी के दाने , उसे भी ,
भाते हैं ,
लेकिन दादी के बक्से ,
का रहस्य , आज भी
बरकरार है ।
रेनू .....
Posted by Renu Sharma at 04:35
कासे कहूं दुखवा ?
ये हवाएं निगोडी !!
सुनती ही नहीं ,
सुनाती हैं , अपना राग ,
कभी यहाँ , कभी वहाँ ,
उड़ती हैं मेरा मन ,
दूर ले जातीं हैं मुझे ,
वहाँ से वापस आना
अच्छा नही लगता ।
मैं बार - बार रूककर
कुछ कहना चाहती हूँ ,
ये हवाएं , मुस्करा जाती हैं ,
पलक झपकते ही ,
कहीं और पहुँचा देती हैं ।
ये नदियाँ , ये झरने
सुनते ही नहीं , मेरी बात
सुनते हैं , अपना कलरव
कभी इस डगर , कभी उस डगर
भगातें हैं अपने साथ
नगर , गाँव , पनघट तक
पहुंचाते हैं मुझे ।
मैं , कुछ कहना चाहती हूँ
ये वादियाँ , ये किनारे
अटखेलियाँ करतें हैं ,
शंख , सीपियाँ उलझाते हैं मुझे ।
ये बादल , ये बिजली
सुनते ही नहीं मेरी बात
कभी इस पहाड़ , कभी उस पर्वत
पहुंचाते हैं मुझे ,
कुछ कहना चाहती हूँ मैं ,
ये घन , ये घटा
बरसने लगते हैं ,
तड़क - भड़क मैं छुपा लेतें हैं
मुझे ,
सुनते ही नहीं ,
मेरी बात ,
दुखवा मैं कासे कहूं ???
रेनू शर्मा .....
Posted by Renu Sharma at 03:35
Friday, 24 October 2008
तुम आओ !!!
नए उगे अंकुर सी ,
उसकी मुस्कराहट ,
ताजी उगी पत्ती सी
उसकी खिलखिलाहट ,
अभी मकरंद को छुपाये ,
कलि सी ,
उसकी मादकता ,
लहराकर बरसती शबनम सी ,
उसकी अल्हड़ता ,
एक शीतल झोंके सी ,
उसकी आहट ,
एक सुखद साए सी
उसकी अनुभूति ,
पूर्णता का बोध सी
उसकी उपस्तिथि ,
मेरे अन्तर के तूफ़ान को
उड़ा ले गई ।
मुझे स्फुरित कर
आत्मा को सिंचित कर गई
मैं , अकेला था ,
मेरे चारो ओर
महफ़िल सजा गई ।
अचेतन था , मैं ,
मेरी चेतना मैं ,
स्पन्दन बसा गई ,
उसके आने का आगाज़ ,
पुनर्जीवित कर गया ।
तुम आओ !!
मैं , आत्मावरण उड़ा दुंगा ।
हे ! जीवन संचरिने !!
खिल जाओ इस
बगिया मैं , पुष्प घाटी सी ,
परागित हो बिखर जाओ
मैं ,समाधिस्थ हो
समाहित हो जाऊंगा ,
उस सुगंध मैं , जो ,
तुम , बिखेर दोगी ।
रेनू शर्मा ...
Posted by Renu Sharma at 05:37
Thursday, 23 October 2008
आहट
ठहरी हुई झील के , शांत पानी सी , हलकी हवा से ही , कम्पित हो गई , नन्ही -नन्ही लहरें , झकझोरती चलीं गईं , दूर तक , एक , सरसराहट सी , दौड़ गई , मानो , किसी ने , किनारे से , बड़ा सा , पत्थर , झील के उस पार तक , चार - पाँच बार उछल दिया हो , और , हजारों हजार पाँव , किनारों को , दलदली बना रहे हों , दूर , पश्चिम मैं , डूबता सूरज , झील को लाल करता है , पर , ठंडा , शांत जल , अंधेरे की आहट से , बेचैन है । रेनू शर्मा .....
Posted by Renu Sharma at 06:06
कसक
स्वयम से स्वयं को ,
छिपा रही हूँ ,
असफल होते प्रयासों का
दर्द ,
नीम की पत्तियों मैं ,
बाँट रही हूँ ,
नाकाम जिन्दगी से ,
रूबरू होना ,
पीड़ा देता है ,
अब ,
दर्पण को भी ,
परदे से ढक रही हूँ ,
स्वयम को स्वयम से ,
छिपा रही हूँ ,
भीड़ मैं ,
अकेले होने की कसक ,
अकेले ही झेल ,
रही हूँ ,
स्वयम को स्वयम से ,
छिपा रही हूँ ,
अब तो ,
परछाई से भी ,
दूरी बना रही हूँ ।
रेनू शर्मा .....
Posted by Renu Sharma at 05:55
Sunday, 19 October 2008
साधारण पांचाली
अग्नि मैं तपे ,
कंचन सी ,
कसौटी पर घिसे ,
स्वर्ण सी ,
इन्द्रीय संग्रह यग्य से
आलोकित
कृष्णा !! ,
मत्स्येंद्रीय आखेट से
सम्मोहित ,
कामाग्नि मैं प्रदीप्त ,
धूम्र सी ।
अनायास ही ,
पंचाग्नि से समाधित
यग्य अग्नि सी ।
पञ्च पुरूष की ,
सम बिभाजित
प्रसाद सी ।
तनाग्नी , मनाग्नी ,
धनाग्नी मैं , प्रज्वलित
ज्वाला सी ।
मानाग्नी ,गर्वाग्नी ,
विश्यग्नी मैं ,
पिघलती बर्फ की ,
सिला सी ।
राज पुरोधाओं से घिरे ,
दरवार मैं ,
स्त्रीत्व रक्षा के लिए ,
तड़फती , फुंफकारती ,
ललकारती , हुंकारती
क्रोधाग्नि से दहकती
अंगार सी ,
पांचाली !! ,
पुरुषत्व के साये मैं ,
परपुरुष के हाथों ,
महापुरुषों के सम्मुख ,
पुरुशाग्नी मैं ,
होम होती रही ,
फ़िर ,
तुम तो साधारण ,
स्त्री हो ..... ।
रेनू शर्मा ...
Posted by Renu Sharma at 03:15
Saturday, 18 October 2008
औरत
औरत , नगर से उपनगर मौहल्ले से घरो तक लोहा तोड़ती पेड़ के नीचे सोती - जागती रवाना बदोश है औरत ! जंगलों ,पहाडों ,पर्वतों सुरंगों , नालों चौराहों , गलियारों में पत्थर फोडती , झूले को धक्का देती , आँचल में दुनिया उतारती , नक्शे पर रास्ता बताती एरो है औरत ताश की बाजी है बाज़ार में चालू , लाटरी की पर्ची है न बिकने वाले , आयटम के साथ , मुफ्त का गिफ्ट है , आवशयकताओं की , पूर्ति के लिए , अनावश्यक वस्तु है औरत , ढकी ,उघडी नंगी , अधनंगी डरी सहमी बड़ी कंपनी का सस्ता माल बेचती इश्तेहार है औरत , भागती ज़िन्दगी की दौड़ में , सरकारी परिवहन में, सैर करते , पीछे छूट गए पेड़ - पौधे के बीच , सूख गए ठूठ सी , उखाड़ कर जलाने योग्य है औरत , कायरता सहने , पुरुषत्व समेटने , फूहड़ शब्दों को बटोरने , पुरानी किताबो का , जखीरा है । औरत , समाज को ढोने, परिवार को पालने , घर को जोड़ने मिटटी गारे का लेप है औरत , भोग है , उपभोग के बाद , थ्रो योग्य है , वर्षों के समेटें , हताश man की , मवाद को , निचोड़ने का डस्ट बिन है औरत, जिस्म की मंडी में, छाँट तोलकर, मोल - ठोक कर , खरीदी गई , घंटे भर की , ऊष्मा है औरत , दुनिया के रंग मंच पर , खेल दिखाती , हुक्म बजाती , तमाशीय कठपुतली है औरत , आंधियो में जमी घास सी , लहरों में बहते पत्थर सी , आग पर खिचते पतंगे सी , जलते दीपक का , तलिस्म है - रेनू शर्मा
Posted by Renu Sharma at 08:27
Friday, 10 October 2008
अंत: पुर का सुख
शासकीय अवाम का ,
अंत :पुर
रोज उखड़ता , सजता
संवरता है ,
खिड़की का परदा , दीवारों की ऊंचाई ,
ड्राइंग रूम का फर्श ,
सड़क की डाबर ,
बगीचे का पेड ,
रोज , इधर से उधर
लगाये , उखाडे फ़िर लगाये जाते हैं ।
ईंट , चूना , गारा , सीमेंट के ढेर ,
सरकारी पद से मेल खाते ,
बिखरे रहतें हैं , द्वार पर , मानो ,
किसी ने उनका परिचय पत्र ,
फाड़कर फैक दिया हो ,
कर्मचारी , मैडम की बेगार से ,
घिन्घियाता ,
कुत्तों की चैन थामे ,
घुर्राता चलता है , मानो ,
साहब का पुराना तमगा पकड़े हो ,
कुत्ता !!, बत्ती लगी गाडी पर ,
पहचान चिन्ह लगाता है , मानो ,
बौस का सहायक ,
फायल पर मोहर लगाता हो ,
बाहर खडी साफ गाडी पर ,
चालक झटकार लगाता है ,मानो ,
साहब का वजूद ,
दर्पण मैं दिखाता हो
ठलुए , कर्मचारी सिद्ध करते हैं ,
ऐ.सी . गाडी मैं , बीडी सुलगाकर ,
ठुमका लगते हैं ,
बिजली पानी का रोना रोते
गली मौहल्ले ,
शिकायतों का पुलिंदा ,
निगम तक लाते हैं ,
उत्कोच के अभाव मैं ,
धूल खाते कागज ,
रद्दी पर तुल जाते हैं ,
राजकीय अनदेखी का दर्द ,
इर्ष्या उगाता है ,
रोज - रोज अंत :पुर का सुख ,
पीड़ा को बढ़ा जाता है ।
रेनू शर्मा .....
Posted by Renu Sharma at 03:27
होश वाले
रास्ट्रीय मसलों को ,
अंतरास्ट्रीय मसलों से मिलाने ,
भारतीय , सामाजिक , व्यवस्था को ,
राजकीय स्तर पर ,
सुद्रण , सुगठित करने ,
पारदर्शक ऑफिस के ,
मन तरंगों से संचालित ,
फोन , इंटर नैट , सैल से ,
मन बहलाते ,
मस्तिस्क की विराटता को ,
शाम घिरते ही ,
तारों की रौशनी मैं ,
घुलते , पिघलते ,
कीमती मयखानों मैं ,
सोडा बर्फ से ,
अपने होश को ,
मदहोश करते ,
सरे आम , अपने वजूद को ,
कत्ल करते ,
रोते - हँसते ,
धरती की गोद मैं ,
लुड्कते , मचलते ,
अदृश्य मसले सुलझाते ,
ये !! होश वाले ।
रेनू शर्मा .......
Posted by Renu Sharma at 03:07
Sunday, 5 October 2008
दीवारें
क्यों खामोश हैं दीवारें ,
कुछ बोलतीं ,क्यों नहीं ?
इन्होने देखा था
उसका ,बिलखना ,
उसका रोना ,
इसी कौने से , चिपक कर
वह , सिसक पडी थी ,
यहीं वह , दीवार है ,
जहाँ , उसने , लिपटना चाहा था ,
और , सरक गई थी जमी पर ,
वह , रात भर ,
सुलगती रही ,
अधजली लाश सी ,
ज्वालामुखी के लावा से ,
गरम आंसू , दहका रहे थे ,
उसे , भीतर से , पर , वह ,
कोयला और राख का ढेर सी ,
सुबह फ़िर , चल पड़ी
अपनी राह ,
कैसे मानूं ?
दीवारों के कान होतें हैं ?
यूँ ही , खडी हैं निष्ठुर जज सी ,
जाने कब , बोल पाएँगी
ये , दीवारें !!
Posted by Renu Sharma at 08:33
धोखा
फूल - पत्तियों , पौधों
नवांकुर कलियों के बीच
वह बुन रही थी
नए सपने
नए ख्वाव ।
लग रहा था
पत्तियां मुस्करा रहीं हैं
पौधे झूम रहे हैं
कलियाँ चटक रहीं हैं
बार - बार
उन्हें बताती थी
सुना तुमने !!
मेरा बेटा , विदेश जाएगा
और मुस्कराती ,
दौड़ जाती थी ,
फ़िर आती , बताती
सुना तुमने !! मेरा बेटा ,
शादी कर रहा है ,
और चली जाती
आज , ठहर कर
बैठ गई है ,
उनके पास ,धीरे - धीरे
मन के भेद
खोल रही है ,
लुड्कते आंसू
स्वयम ही , समेट रही है
पेड - पौधे , पत्तियां
फूल , कलियाँ सब
निस्पंद से लग रहें हैं ,
रुक कर कह उठती है !!
मुझे पता था
तुम भी एक दिन
धोखा दोगे .......
रेनू शर्मा .......
Posted by Renu Sharma at 08:17
Monday, 29 September 2008
फुटपाथ
फुटपाथ पर थिरकते कदम ,
बार - बार पीछे मुड़कर ,
आगे बड़ते कदम
ठिठक कर , झिझक कर ,
सकुचाकर कुछ ,
तेज चलते कदम ,
आहट को जान कर ,
चौंकते कदम ,
फुटपाथ पर ,
जूते चप्पल , सैंडिल , कभी
नंगे पाँव बड़ते कदम ,
कामयाव कदम ,
नाकाम कदम
निराश कदम ,
आशान्वित कदम ,
विजयी कदम ,
उत्साही कदम ,
कदम दर कदम ,
फुटपाथ पर टहलते कदम
पदचिन्हों पर
नए आलेख समेटते कदम ,
अनेकता मै एकता को
बांधते कदम ,
फुटपाथ पर ,
सृष्टि का प्रवाह बनते
कदम .....
रेनू शर्मा .....
Posted by Renu Sharma at 06:35
लिफ्ट मांगती वो
नागिन सी सरकती ,
सड़क पर , सरपट दौड़ती ,
लालबत्ती गाड़ी को ,
हाथ हिलाकर ,
लिफ्ट मांगती वो ,
भोली , नादान , अनजान ,
अल्हड , पर्दानशीं ,
नही जानती कि ,
सरकारी स्वामियों की
खिदमद मै दहाड़ते
घनघनाते पवन हंस
बेमतलब यों ही तफरीह मै
पिकनिक मै , सैर सपाटे मै
हाजिरी लगातें हैं
वो , नहीं जानती कि ,
उन्हीं के पसीने के अर्क से ,
अर्जित दौलत से ये ,
बेखौफ पंछी से
उड़ते हैं यहाँ से वहाँ ,
पर जब वो ,
वीरान , तन्हाँ राहों पर
सहमी , डरी,
सिमटी , घूंघट मै छिपी
लिफ्ट मांग लेगी ,तो
ये अश्वारोही !
उसकी भावनाओ , आशाओं और
हौसलों पर कुठाराघात करते ,
ठेंगा दिखाते ,उड़ जायेंगे ।
वो नही जानती ,
शहर , गाँव ,राजनीती
अफसरी , सरकारी मेहमानवाजी और
वी आई पी होना ।
वो बस जानती है ,
मानवीयता , इंसानियत और
पर्दे मै छिपी उर्जा को
अपनत्व को ,एकत्व को ।
रेनू शर्मा ........
Posted by Renu Sharma at 06:06
Thursday, 25 September 2008
इन्सान बनकर देखो
ममता के आँचल से ,
गीला मुह , पौछने वाले ,
मुंह अंधेरे , टोस्ट चाय
के लिए झगड़ने वाले ,
बहन की चोटी ,
भाई की टोपी खीचने वाले ,
दोस्त के घर दिन भर ,
धमाचौकडी करने वाले ,
मासूम , अब क्यों ??
भय से बेखबर ,
हो गए हैं ,
उनके संस्कार , तालीम ,
मां का दुलार ,
कहीं गुम हो गया है ।
भाई चारा , सौहाद्र , वतन परस्ती ,
और इंसानियत मिलकर ,
मानवीय नियमों की ,
धज्जियां उड़ा रहें हैं ,
निडरता दिखानी है , तो
विज्ञान की परतें ,
उधेड़ कर देखो ,
गगन के तारे ,
गिन कर देखो ,
बादलों पर महल बना कर देखो ,
परिंदों के साथ , उड़ लो ,
बुजुर्गों की चरण रज ,
चूम लो ,
बच्चों की किलकारी सुन लो ,
पपीहे की पुकार समझ लो ,
निर्भय हो तो ,
हताशाओं से , कायरता से ,
उत्तेजना से , सम्मोहन से ,
बहकावे से ,नाता तोड़ लो ।
एक , रौशनी का चिराग ,
जला कर तो देखो ,
अंधेरे जगमगा उठेंगे ,
एक , अदद , इन्सान बनकर तो ,
देखो !!!
रेनू शर्मा .....
Posted by Renu Sharma at 00:45
खंजरों का शहर
जिस चहरे पर देखो ,
खौफ का साया है ,
दशकों से साथ रहना ,
हँसना , खेलना ,हिलना ,
मिलना , उठना , बैठना ,
सब , बेमानी हो गया है ,
सुबह की ,
दुआ सलाम , अब
रहस्य की तरह ,
चिपक जाती है
जुवान पर ,
प्रतिउत्तर की बेरुखी ,
अन्तर को ,
झंकृत करती है ।
हर दरवाजे की ओट मै,
खंजर सज गया है ,
जिस गिरह की ,
तहों मै ,
लक्ष्मी छुप जाया करती थी ,
वहाँ , अब ,
४७ का बसेरा है ,
पेट की आग को
थमने के लिए ,
पानी - रोटी का ,
सहारा था ,
वहाँ , अब ,
रोटी के डिब्बे मै ,
बारूद उग रहा है ,
बचपन का नूर ,
कहीं , खो सा गया है ।
क्यों , हमारा शहर ,
खंजर बेच रहा है ????
रेनू शर्मा .......
Posted by Renu Sharma at 00:10
Wednesday, 24 September 2008
नव वर्ष
प्रति वर्ष नववर्ष रुपी पंखों सा फैलता जीवन चला जा रहा है , अनंत की ओर। हे राही ! नववर्ष के स्वप्निल , स्नेहिल आकान्छायों के समंदर मै डूबकर , उबरना है , भौतिकता के इस तूफ़ान को संतोष की शीतलता से निरुत्साहित करना है । हे राही ! दूर किनारे पर ठहरी धूप को अपने आँचल मै प्रकाशित करना है , मृग तृष्णा सी , कामनायों को विराम देना हहै । हे राही !! अकल्पनीय प्रकाश हमें आलोकित कर रहा है , उठो ! नववर्ष अभिनन्दन करें , हे राही ! नव वर्ष , स्वागत करें !!
रेनू शर्मा .....
Posted by Renu Sharma at 01:20
Tuesday, 23 September 2008
शब्द
शब्द, जुड़कर
भाव बन जाते हैं
भाव , शब्द से जुड़कर
अभिव्यक्ति करते हैं
अभिव्यक्ति , एक व्यक्तित्व
को जन्म देती है
व्यक्तित्व से शब्द ही
एकाकार कराते हैं
शब्दों का जाल
पीडा दर्शाता है
मन की ख़ुशी
दिखाता है
शब्द ही जोड़ता है
शब्द ही तोड़ता है
शब्द ही परम ब्रहम है
शब्द ही ओमकार है ...
- रेनू शर्मा
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