Friday, 27 February 2009
मेरा घर
परिंदे के छोड़े घरोंदे सा
मेरा घर ,
कभी -कभी
सूना सा लगता है ।
झरोखे , बालकनी , छत
आँगन और मुडेर
सुरक्षा देती हैं ।
हवा , रौशनी से नहाया
पत्थर का घर भी
ढहते किले सा लगता है ।
एकांत दूर ले जाता है
हलचल में भी ,
खामोश बैठी , तनहा
विचारों के तूफ़ान घेर लेते हैं ।
अपनों से दूर ,
अपने पास चली आती हूँ ,
हर रोज परिंदे सी ,
घरोंदा सजा लेती हूँ ।
कुछ लम्हों के लिए ही सही
जिन्दगी में लौट आती हूँ ।
रेनू ....
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