Friday, March 6, 2009

पूर्णता

Wednesday, 28 January 2009

पूर्णता

स्वयं ही स्वयं का मित्र होना
स्वयं ही स्वयं का शत्रु होना ,
दिलाता है एहसास
स्वयं की पूर्णता का ।
हर मनुष्य स्वयं में
पूर्ण होकर भी ,
क्यों है इतना अपूर्ण ?
शायद , उत्कट अभिलाषाओं का सैलाव
परिधि के बाहर आने का मन ,
स्वयं की सीमितता का बोध ,
अनुचित इच्छाओं का फैलाव
और ,
तुलनात्मक मानसिकता का विकास
उसे परिचित करता है
अपूर्णता की भावना से ।
अनेक इच्छाओं का पूर्ण होना
आनंदित करता है ।
और , शीघ्र ही उस
आनंद की सीमितता का
बोध होता है ।
कितना क्षण -भंगुर है ,
यह आनंद ,
इस आनंद की मृगतृष्णा का ज्ञान ,
मिटा देता है ,
अज्ञान-का अंधकार
और तब , मनुष्य शुरू करता है
स्वयं मे स्वयं की
पूर्णता की खोज ।
पूर्णता क्या है ?
क्या जान पाओगे उसे ,
बिना जाने अपूर्णता के ।
क्या जानते हो ?
उत्तर तक पहुँचने का मार्ग ,
जो सदैव शुरू होता है
दक्षिण से ।
अगर होना है पूर्ण तो ,
पहले अपूर्णता को समझो ।
तब , जान पाओगे ,
कहाँ से शुरू होती है
जीवन यात्रा ।
विमल ......

No comments:

Post a Comment