Tuesday, 10 February 2009
औरत
दहकते अंगारों जैसी गोलाकार , गुलाबी डोरों से आवृत , घृणा से सराबोर तोते सी , उनकी आँखें बींध रहीं थीं , मुझे , अरसे से सुलग कर , अधजले कोयले सी बुझ रही थी , मैं , यकायक , भभक कर , जल उठी ,मानो चिंगारी लगा दी हो , पता नही क्यों ? राख से भस्म भी नही हो पा रही हूँ , मैं , बार -बार शोला सा भड़क उठता है , कहीं कोई , नदिया नहीं मिलती , जहाँ बहा दूँ , औरत को । कहीं कोई , शमशान नही मिलता , जहाँ मिटा दूँ , औरत को । यहाँ इस दरींचे में रफ्ता -रफ्ता ,जिंदगी तमाम हो रही है । कहने को , गुलशन भी महक रहा है , हवाएं भी , बहक रहीं हैं लेकिन , मेरा वजूद मृत सा , जान पड़ता है ,यहाँ औरत , हर दिन , हर रात दांव पर खेली जाती है । कहने को , दरवाजे बहुत हैं , पर हर द्वार , औरत पर आकर बंद हो जाता है । एक झरोखे के खुलने का इंतजार है , जहाँ , औरत प्रकाशित हो सके । रेनू .....
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