Friday, March 6, 2009

बगर्यो बसंत

Friday, 30 January 2009

बसंत

पीली सरसों फूल रही है
महक रही है बगिया ,
ढाक -पलाश की
बूढी डाली , गदराई सी
भई जवान ,
महका महुआ , बिखरा पतझर
पके अनाज
ये हलचल भई
बड़ी निराली है ।
पीली पगड़ी पहने पुत्तु
हुक्के में ,
सुड़का मार रहा है ।
छैल -छबीली , नखरेवाली
छमिया !!
घूँघट छोड़ रही है ,
दूर खेत
प्रियतम से मिलने
साँझ सकारे दौड़ रही है ।
कोई कहे ,
आयो बसंत , छायो बसंत रे ।
पीपल के बिरवा के नीचे
भागीरथ तान लगाय रहो है ,
गाय हमारी ,
तिर्यक देखे ,
पंछी बीन बजाय रहे हैं ।
जित देखो , उत
मदमस्त भये सब ,
कोई कहे , आयो बसंत
कोई कहे , छायो बसंत रे ।
गली -गली , घर -द्वार , चोबारे
पीली चूंदर सूख रही है ,
मन्दिर के वटवृक्ष के नीचे
मुनिया कथा पाठ कर रही ,
पीछे से बच्चों की टोली
पीत पंखुरी उड़ा रही है ।
कोई कह रहा ,
आयो बसंत ,
कोई कहे , मदन छायो है रे ।
बाट जोत रहो ,
कोई रति की
जो बैठ अटरिया ,
इतराय रही है ।
आयो बसंत ,
छायो बसंत ,
बगरयो बसंत है रे ।
रेनू .....

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