Wednesday, 4 March 2009
कैसा महिला दिवस ?
वो ,
तडके सवेरे ,
बटोरी लकडियों से
चूल्हा जला ,
रोटियां सेक
हाथ में ,
श्रमिक वाला
थैला पकड़ ,
नंगे पैर
चिलचिलाती धूप में
सड़क पर
दौड़ रही थी ।
पीठ की झोली में
बेटी को ,
बाँध लिया है
अपने भाग्य सा ,
किसी दरख्त के साये में
झुला देगी उसे ,
मीठे सपनों की नींद
और
जुट जायेगी
फावडा , गैंती
लेकर
अपने कर्म खोदने ।
जब ,
सिमट जाएगा दिन
तब ,
अल्प फल के साथ
दौड़ पड़ेगी
आशियाने की तरफ़ ,
क्योंकि
मर्द ,
उसके महिलातत्व का
स्वागत करने
विकल बैठा है ।
धुनी हुई रुई सी
तार -तार होकर
फ़िर से ,
महिला मजदूर की
पंक्ति में समाहित
हो लेगी ।
जिन्दगी यूँ ही
तमाम कर देगी
एक महिला ।
रेनू ......
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