कहकहे बटोरती
तिलिस्म बिखराती ,
आईने में जिंदगी
निहारती ,
काँटों को सवांरती ,
फूलों को सहेजती
सूखे पत्तों को
समेटती ,
बादलों में छुपाती ,
हवाओं के साथ उड़ती
मौसम सी बदलती ,
कभी ,
संगीत सी बजती
स्त्री ,
कठपुतली सी ।
पुरूष के बनाये
रंग मंच पर फुदकती है ।
मानो ,
टांग दी गई हो
खूँटी पर ,
बंधन खुलने की
आस में ।
रेनू ...
No comments:
Post a Comment