Monday, March 16, 2009

आस


कहकहे बटोरती

तिलिस्म बिखराती ,

आईने में जिंदगी

निहारती ,

काँटों को सवांरती ,

फूलों को सहेजती

सूखे पत्तों को

समेटती ,

बादलों में छुपाती ,

हवाओं के साथ उड़ती

मौसम सी बदलती ,

कभी ,

संगीत सी बजती

स्त्री ,

कठपुतली सी ।

पुरूष के बनाये

रंग मंच पर फुदकती है ।

मानो ,

टांग दी गई हो

खूँटी पर ,

बंधन खुलने की

आस में ।

रेनू ...

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